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________________ वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन 207 उदाहरण - गत्वा प्रतोलीशिखराग्रलग्नेन्दुकान्त निर्यज्जलमापिपासुः। भीतोऽथ तत्रोल्लिखितान्मृगेन्द्रादिन्दोमुंगः प्रत्यपयात्यथाऽऽशु।। 34 ।। _ -वीरो.सर्ग.2। जिनालयों की प्रतोली (द्वार के ऊपरी भाग) के शिखर के अग्रभाग पर लगे चन्द्रकान्तिमणियों से निकलते हुए जल को पीने का इच्छुक चन्द्रमा का मृग वहाँ जाकर और वहाँ पर उल्लिखित (उत्कीर्ण, चित्रित) अपने शत्रु मृगराज (सिंह) को देखकर भयभीत हो तुरन्त ही वापिस लौट आता है। यहाँ पर चित्रित सिंह में यथार्थ सिंह का संशय होने के कारण संदेह अलंकार है। 16. विरोधाभास - जहाँ विरोध जैसा प्रतिभासित तो हो; किन्तु यथार्थ में विरोध न हो, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है। लक्षण - विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरूद्धत्वेन यद्वचः ।" उदाहण - नरपो वृषभावमाप्तवान् महिषीयं पुरनेतकस्य वा। अनयोरविकारिणी क्रिया समभूत्सा धु सदामहो प्रिया।। 36 || -वीरो.सर्ग.3 । यह सिद्धार्थ राजा वृषभाव (बैलपने) को प्राप्त हुआ और इसकी रानी महिषी (भैंस) हुई पर यह तो विरूद्ध है कि बैल की स्त्र भैंस हो। अतः परिहार यह है कि राजा तो परम धार्मिक था और प्रियकारिणी उसकी पट्टरानी बनी। इन दोनों राजा-रानी की क्रिया अवि (भेड) को उत्पन्न करने वाली हो, पर यह कैसे सम्भव है। उसका परिहार है कि उसकी मनोविनोद आदि सभी क्रियाएं विकाररहित थीं। वह रानी मानुषी होकर भी देवों की प्रिया (स्त्री) थी। यह भी संभव नहीं है। इसका परिहार है कि वह अपने गुणों द्वारा देवों को भी अत्यन्त प्यारी थी।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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