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206 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन होता है। द्वितीय का उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है - नासौ नरो यो न विभाति भोगी भोगोऽपि नासौ न वृषप्रयोगी। वृषो न सोऽसख्य–समर्थितः स्यात्सख्यं च तन्नात्र कदापि न स्यात् ।। 38 ।।
___ --वीरो.सर्ग.2। उस कुण्डनपुर में ऐसा कोई मनुष्य नहीं था, जो भोगी न हो और वहाँ कोई ऐसा भोग नहीं था, जो कि धर्म संप्रयोगी अर्थात् धर्मानुकूल न हो, वहाँ ऐसा कोई धर्म नहीं था, जो कि असख्य (शत्रुता) समर्पित अर्थात् शत्रुता पैदा करने वाला हो और ऐसी कोई मित्रता न थी, जो कि कदाचित्क हो अर्थात् स्थायी न हो। 14. भ्रान्तिमान - जब किसी वस्तु में समता के कारण अन्य वस्तु की भ्रान्ति कवि प्रतिभा के द्वारा समुत्पन्न होती है तो वहाँ भ्रान्तिमान् अलंकार होता है -
लक्षण - 'भ्रान्तिमानन्य संवित् तत्तुल्यदर्शने' 115 उदाहरण - यत्खातिकावारिणि वारणानां लसन्ति शंकामनुसन्दधानाः । शनैश्चरन्तः प्रतिमावतारान्निनादिनो वारिमुचोऽप्युदाता।। 30।।
--वीरो.सर्ग.2। उदार, गर्जना युक्त एवं धीरे-धीरे जाते हुए मेघ नगर की खाई के जल में प्रतिबिम्बत अपने रूप से हाथियों की शंका को उत्पन्न करते हुए शोभित होते हैं। यहाँ खाई के जल में प्रतिबिम्बत मेघों में हाथी की भ्रान्ति हो रही है। 15. सन्देह - लक्षण - ‘ससन्देहस्तु भेदोक्तौ तदनुक्तौ च संशयः' 116
जब उपमेय में उपमान का संशय उत्पन्न किया जाता है, तब सन्देह अलंकार होता है।