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________________ वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन 201 ही मानों उस राजा की कीर्ति समुद्र तक पहुंच गई है अर्थात् सिद्धार्थ का यश समुद्र तक फैल गया है। इसलिए कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है। रसैर्जगत्प्लावयितुं क्षणेन सूत्कण्ठितोऽयं मुदिरस्वनेन। तनोति नृत्यं मृदु-मञ्जुलापी मृदङ्गनिःस्वानजिता कलापि।। 9 ।। -वीरो.सर्ग.41 रसों से जगत् को एक क्षण में आप्लावित करने के लिए ही मानों मृदंग की ध्वनि को जीतने वाले मेघों के गर्जन से अति उत्कंठित और मृदु मञ्जुल शब्द करने वाला इस कलापी (मयूर) के द्वारा नृत्य किया जाता यहाँ वर्षाकाल की नाटक-घर के रूप में सम्भावना की गई है; क्योंकि इस समय मेघों का गर्जन तो मृदंगों की ध्वनि को गृहण कर लेता है और उसे सुनकर प्रसन्न हो मयूरगण नृत्य करते हुए सरस संगीत रूप मिष्ट बोली का विस्तार करते हैं। वर्षा-ऋतु के वर्णन में भी कवि की उत्प्रेक्षा देखिये - वसुन्धरायास्तनयान् विपद्य नियन्तिमारात्खरकालमद्य। शम्पाप्रदीपैः परिणामवार्द्राग्विलोकयन्त्यम्बुमुचोऽन्तरार्द्राः ।। 11 ।। -वीरो.सर्ग.4 7. दृष्टान्त - लक्षण - ‘दृष्टान्तः पुरनेतेषां सर्वेषां प्रतिबिम्बनम्' जहाँ उपमानोपमेय में विद्यमान साधारण धर्म का दो वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब-भाव रूप से वर्णन हो, वहाँ दृष्टान्त-अलंकार होता है। उदाहरण - प्रभोरभूत्सम्प्रति दिव्यबोधः विद्याऽवशिष्टा कथमस्त्वतोऽथं। कलाधरे तिष्ठति तारकाणां ततिः स्वतो व्योम्नि धृतप्रमाणा।। 49 ।। -वीरो.सर्ग.12।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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