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________________ वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन 4. उपमा 199 अर्थालंकारों में प्रधान उपमा अलंकार है । उपमा अलंकारों में सम्राज्ञी है। उसके सग्राज्ञी पद को मुनि ज्ञानसागर ने अत्यधिक सम्मान दिया है। प्राकृतिक पदार्थों, नगरों और ऋतु-वर्णन में उन्होंने इसका खूब प्रयोग किया है। आचार्य मम्मट के अनुसार 'साधर्म्यमुपमा भेदे' । उपमान व उपमेय का भेद होने पर उनके साधर्म्य का वर्णन उपमा कहलाता है । रानी प्रियकारिणी के वर्णन में मालोपमा का एक उदाहरण 'दयेव धर्मस्य महानुभावा क्षान्तिस्तथाऽभूत्तपसः सदा वा । पुण्यस्य कल्याणपरम्परेवाऽसौ तत्पदाधीन समर्थ सेवा ।। 16 ।। - वीरो.सर्ग. 3 । उदार भावों वाली वह रानी धर्म की दया के समान, तप की क्षमा के समान, पुण्य की कल्याण परम्परा के समान राजा के चरणों में रहती हुई सदा ही उसकी पूर्ण सामर्थ्य से सेवा करती थी । प्रस्तुत श्लोक में दया, क्षमा, कल्याण परम्परा रानी के उपमान रूप में प्रस्तुत हैं । तप, धर्म, पुण्य उपमेय हैं, इव शब्द उपमा का वाचक है । “तत्पदाधीन समर्थ सेवा” साधारण धर्म है। 5. रूपक आचार्य मम्मट ने नवम उल्लास में रूपक की परिभाषा देते हुए कहा है - जहाँ उपमेय का निषेध न कर उपमान के साथ सादृश्यातिशय के प्रभाव से तादात्म्य दिखाया जाता है। उपमान -उपमेय में अभेदारोप किया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है 'तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः' । लक्षण उदाहरण - यत्कृष्णवर्त्मत्वमृते प्रतापवह्निं सदाऽमुष्य जनोऽभ्यवाप । ततोऽनुमात्वं प्रति चाद्भुतत्वं लोकस्य नो किन्तु वितर्कसत्त्वम् ।। 6 ।। - वीरो.सर्ग. 3 ।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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