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________________ वीरोदय का स्वरूप तस्य कस्य? योऽथो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः-तत्त्वार्थ- राजवार्तिक 2 / 16 | 167 'तत्' सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है । अतः उसका भाव तत्त्व कहा जाता है। जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस रूप में होना - यही "तत्त्व" शब्द का अर्थ है। ये तत्त्व अनादि हैं। जिस प्रकार काल अनादि अनन्त है, उसी प्रकार तत्त्व भी अनादि हैं। पुण्य और पाप का अन्तर्भाव आस्रव तत्त्व में हो जाता है। अतः सात तत्त्व ही प्रमुख हैं। आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये पाँच तत्त्व भावरूप में जीव की पर्याय हैं और द्रव्यरूप में पुद्गल की। जीव-तत्त्व - जीव-तत्त्व का अर्थ है " चैतन्य" । चैतन्य आत्मा की स्वाभाविक शक्ति है, आत्मा का विशिष्ट गुण है । यह आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ में नहीं होता । आत्मा में जानने की क्रिया निरन्तर होती रहती है। ज्ञान का प्रवाह एक क्षण के लिए भी नहीं रूकता । अजीव-तत्त्व अजीव-तत्त्व के अन्तर्गत पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन पाँच की गणना की गई है। पुद्गल - द्रव्य ही आत्मा के बंध का कारण है। इसी से शरीर, मन, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और वचन आदि का निर्माण होता है । शरीर और चेतन दोनों भिन्न-धर्मक हैं । इनका अनादि- प्रवाही सम्बन्ध है । चेतन और अचेतन अत्या भिन्न हैं । ये सर्वदा एक नहीं हो सकते । आसव तत्त्व जीव के द्वारा मन, वचन और काय से जो शुभाशुभ प्रवृत्ति होती है, उसे भावास्रव कहते हैं, और उसके निमित्त से विशेष प्रकार की पुद्गल वर्गणायें आकर्षित होकर उसके प्रदेशों में प्रवेश करती हैं, वह द्रव्यास्रव है । मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहते हैं और योग ही आस्रव का कारण होने से आस्रव कहा जाता है । मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों से आत्म-परिस्पन्दन होता है और इसी परिस्पन्दन से कर्मों का आस्रव होता है । कर्मों के आने के द्वार ही आस्रव हैं। ये पाँच हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद, 4. कषाय 5. योग। ये पाँचों आस्रव प्रत्यय होने से बंध के हेतु हैं । -
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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