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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन पशूनां पक्षिणां यद्वदुल्कादीनां च शब्दनम्। शकुनिः पनिशम्यैतदर्थयत्येष तादृशम् ।। 6 ।।
-वीरो.सर्ग.15। जिस प्रकार एक शकुन-शास्त्र का वेत्ता पुरूष पशु, पक्षी और बिजली आदि के शब्द को सुनकर उनके यथार्थ रहस्य को जानता है, हर एक मनुष्य नहीं। उसी प्रकार भगवान की वाणी के यथार्थ रहस्य को गौतम गणधर ही जान पाते थे।
शुश्रूषूणामनेका वाक् नानादेशनिवासिनाम् । अनक्षरायितं वाचा सार्वस्यातो जिनेशिनः ।। 8 ।।
वीरो.सर्ग.15। नाना देश के निवासी श्रोता जनों की भाषा अनेक प्रकार की थी। अतएव सर्व के हितैषी जिनेन्द्रदेव की वाणी अनक्षर रूप से प्रकट हुई। (यह भगवान का अतिशय था।)
इस प्रकार दिव्य-ध्वनि का (अलौकिक प्रभाव के कारण) समस्त मानव-जगत को अपनी-अपनी भाषा में सुनाई पड़ती थी। दिव्यध्वनि का मधुर संगीत प्राणी मात्र को अपनी ओर आकृष्ट करता था और 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उद्घोष भी जनता के लिये सरल-सहज मार्ग का उदघाटन कर रहा था। लोक-जीवन और लोक शासन पावनता का अनुभव कर अपने को निर्विकार और स्वतन्त्र समझ रहे थे। सिद्धान्तों की प्ररूपणा
तीर्थकर महावीर अपने समय के महान् तपस्वी होने के साथ-साथ एक उच्चकोटि के विचारक तत्त्वान्वेषी भी थे। उन्होंने धर्म और दार्शनिक विचारों को साधु जीवन के चरमोद्देश्य मुक्ति के साथ निबद्ध कर क्रियात्मक रूप दिया। उन्होंने बतलाया कि संसार के बन्धन में पड़ा हुआ जीव पुरूषार्थ द्वारा कर्मों के भार से पूर्ण मुक्त होकर शाश्वत मोक्ष-सुख को पा सकता है। उनके समय में मुक्ति, जीव-स्वरूप, जीव का अस्तित्व, जगत् का नित्यत्व-अनित्यत्व, आत्मा का शरीर से भिन्नत्व–अभिन्नत्व आदि की