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वीरोदय का स्वरूप
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कहा है और बतलाया है कि तीर्थंकर का वचनामृत संसार के समस्त प्राणियों को अपनी-अपनी भाषा में तृप्त करता है।
अलंकार-चिन्तामणि में भी इसे सर्वभाषात्मक, असीम सुखप्रद और समस्त नयों से युक्त बतलाया है। धवलाटीका में आचार्य वीरसेन ने लिखा है, – “एक योजन के भीतर दूर अथवा समीप में बैठे हुए अठारह महाभाषा और सात-सौ लघु भाषाओं से युक्त तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों की भाषा के रूप में परिणत होने वाली तथा न्यूनता और अधिकता से रहित मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद भाषा के अतिशयों से युक्त तीर्थकर की दिव्य-ध्वनि होती है।" महापुराण में लिखा है कि दिव्यध्वनि एक रूप में होती हुई भी तीर्थकर प्रकृति के पुण्य प्रभाव से समस्त मनुष्यों और पशु-पक्षियों की संकेतात्मक भाषा में परिणत हो जाती है। एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोऽन्तरनेष्टबहूश्च कुभाषाः । अप्रपिपत्तिमपास्य च तत्त्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना।।
-आदिपुराण 23/701 तीर्थकर महावीर की दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा में होती थी। सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम्। सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वज्ञी प्रणिदध्महे ।।
-वाग्भट काव्यानुशासन, पृ. 21 महावीर का जन्मस्थान वैशाली था। अर्धमागधी इसी क्षेत्र की भाषा रही होगी। तीर्थंकर महावीर अर्धमागधी में उपदेश देते थे और उनकी यह दिव्यध्वनि मनुष्य, पशु आदि की भाषा में परिणत हो जाती थी। समवायांग में लिखा है- महावीर की देशना अर्धमागधी में होती थी। यह शान्ति, आनन्द और सुखदायिनी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद्, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी आदि के लिए अपनी भाषा में परिणत हो जाती थी। दिव्यध्वनि के प्रभाव का निरूपण करते हुए वीरोदय महाकाव्य में लिखा है कि