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वीरोदय का स्वरूप
निर्जन्तु और एकान्त स्थान पर ही मल-मूत्र आदि उत्सर्ग करे, जिससे किसी जीव को कष्ट न हो। (यही व्युत्सर्गसमिति है) पीछी से परिमार्जित भूमि पर ही बैठे, वस्तु को धरे व उठावे। इनमें सदा सावधानी बरते। (यह आदान-निक्षेपण समिति है)। (28/18) वायु के समान निःसंग होकर सदा विचरण करे। स्वप्न में भी स्त्रियों की याद न करे। (29/18) ऐसी चर्या के साथ सन्यासी साधक सभी संकल्प-विकल्पों को त्यागकर मन को श्री वीतराग प्रभु के ध्यान में लगावे। (41/18) तभी सिद्धि (सिद्धगति) प्राप्त हो सकती है। निगोपयेन्मानसमात्मनीनं श्रीध्यानवप्रे सुतरामदीनम् । इत्येष भूयादमरो विपश्चिन्न स्थात्पुनारयितास्य कश्चित् ।। 41/18 |
__इस प्रकार आचार्य श्री ने गृहस्थधर्म व मुनिधर्म की विवेचना इस महाकाव्य में संक्षेप में की है। दीक्षा एवं तपश्चरण -
भगवान महावीर स्वामी ने भी मगसिर मास की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को दैगम्बरी दीक्षा धारण की। उन्होंने निर्जन वन में जाकर वस्त्रों का परित्याग किया, केश समूह का लोंच किया और मौन को अंगीकार कर तपस्या में लीन हो गये -
मार्गशीर्षस्य मासस्य कृष्णा सा दशमी तिथिः। जयताज्जगतीत्येवमस्माकं भद्रताकरी।। 26/10।। विजनं स विरक्तात्मा गत्वाऽप्यविजनाकुलम् । निष्कपटत्वमुद्धर्तु पटानुज्झितवानपि।। 24/10।। उच्चखान कचौधं स कल्मषोपममात्मनः । मौनमालब्धवानन्तरन्वेष्टुं दस्युसंग्रहम् ।। 25 ।।
-वीरो.सर्ग. 101 सन्दर्भ - 1. हरिवंशपुराण 3/3-71