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________________ 152 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन में शरीर - हानि होने पर भी साधु के द्वेष, खेद या असूया - भाव प्रकट नहीं होना चाहिए। आत्म-साधना के समय यही भाव होवे कि "जड़ - शरीर का पुनः संयोग न होवे'। साधु को यही अमृत- वचन पेय है। (24/18) आगे वीरोदय में साधु-चर्या के संबंध में बतलाया है कि साधु, अनादिकाल से विस्मृत या कर्मरूपी चोरों से अपहृत आत्मधन को ढूढ़ने (पाने) के लिए शरीर रूपी नौकर को भिक्षा रूपी वेतन देकर सदा उसके द्वारा अपने अभीष्ट को साधने में लगा रहता है और शरीर की स्थिति के लिए दिन में केवल एक बार ही निर्विकार, निर्दोष, सात्त्विक, आहार अल्पमात्रा में भक्तिपूर्वक दिये जाने पर ही लेता / ग्रहण करता है और बीच में अन्तराय आने पर उसे भी छोड़ / त्याग देता है । ( 25 / 18 ) यहाँ साधु की "एषणा समिति" का कथन है। सूर्योदय होने पर प्रकाश के भलीभाँति फैल जाने पर ही भूमि को सामने देखते हुए साधु को विचरना / गमन करना चाहिए। (यही ईर्यासमिति है) पक्षी के समान वह सदा विहार करता रहे। कहीं स्थिर होकर न रहे। आगम की आज्ञानुसार वर्षा ऋतु के सिवाय गांव में एक दिन, नगर में तीन या पांच दिन से अधिक न ठहरे। वर्षा ऋतु में चार माह उपयुक्त स्थान पर ठहरने की अनुमति है। किसी के पूँछने पर साधु को हित- मित-प्रिय वचन ही बोलना चाहिए । बिना पूँछे और अनावश्यक बोलना साधु को निषिद्ध है । (यही भाषा - समिति है ) 1. अपने मद-मत्सर आदि भावों पर विजय पाने के लिए साधु को मन के संकल्प - विकल्पों का, वचन की संभाषण आदि क्रियाओं का तथा काय की गमनादि रूप क्रियाओं का भी विनिग्रह करना चाहिए । यही उसका प्रधान कर्त्तव्य है । अन्तरंग - विकारों को निकालने के लिए मौन - पूर्वक आत्मसाधना करना ही साधु का उत्सर्ग मार्ग है । (यहाँ त्रिगुप्ति का कथन है) यदि कदाचित् संभाषण या गमनादि करना पड़े तो उनका उपयोग परोपकार में ही होना चाहिए । परोपकार हेतु की गई मन-वचन-काय की क्रिया भी सावधानी पूर्वक होना चाहिए। (यह अपवाद मार्ग है) सावधान प्रवृत्ति ही समिति है । (27/18)
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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