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वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन __मांस-भक्षण और रात्रिभोजन-त्याग के साथ ही आचार्यश्री ने जल छानकर पीने की बात भी एक श्लोक (29/18) में कही है। सुनी हुई बात को जल के समान छानकर स्वीकार करें, सहसा सुनी बात पर . विश्वास न करें, खूब छानबीन कर उचित-अनुचित का निर्णय करें। जो मनुष्य इन पापों में लिप्त रहता है, और विपरीत आचरण करता है, वह संसार के दुःख-गर्त में गिरता है/दुःख भोगता है। इसके विपरीत मनुष्य सन्मार्गी होकर उच्च पद प्राप्त करता है। मुनि-धर्म
मुनिराज अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं। समस्त आरम्भ-परिग्रह से रहित होते हैं। वे छहों काय के जीवों का घात नहीं करते और राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि भावों को उत्पन्न नहीं होने देते। अपने प्राणों पर संकट आने पर भी झूठ नहीं बोलते, बिना दी हुई कोई वस्तु नहीं लेते। पूर्ण शील का पालन करते हैं, अन्तरंग बहिरंग परिग्रह के त्यागी होते हैं शुद्धि हेतु कमण्डलु और प्राणि-रक्षा के लिये मयूर-पंख की पिच्छि रखते हैं।
छह आवश्यक गुण, समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कार्योत्सर्ग/शेष सात गुण, स्नान-त्याग, भूमि शयन, नग्न रहना, केशलोंच करना, खड़े रहकर, दिन में एक बार आहार ग्रहण करना, दातोन नहीं करना, तीन गुप्तियों का पालना, सात भय का त्याग, आठ मदों का त्याग, बाईस परीषहों को सहना, चरित्र, धर्म, अनुप्रेक्षा से युक्त होना ये मुनियों के आवश्यक गुण बतलाये गये हैं। पंच महाव्रत- मुख्य व्रतों को महाव्रत कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के कारणभूत हिंसादि के त्याग को व्रत कहते हैं। जिनको श्रावक अणुव्रत के रूप में ग्रहण करते हैं, उनका मुनिराज पूर्ण रूप से पालन करते हैं, उन्हें महाव्रत कहते हैं इनके पाँच भेद हैं -
को 1. अहिंसा महाव्रत, 2. सत्य महाव्रत, 3. अचौर्य महाव्रत, 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत, 5. अपरिग्रह महाव्रत