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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
इस प्रकार क्रमशः अश्वग्रीव आदि पर्यायों को धारण करते हुए महावीर के जीव में सिंह के भव में मुनिराज के सत्संग का सुयोग प्राप्त किया तथा समस्त प्राणियों की हितकारिणी मानसिंक प्रवृत्ति होने से तीर्थकरत्व नामकर्म का बन्ध कर अच्युत स्वर्ग की इन्द्रता को प्राप्त किया। यथा - समस्तसत्त्वैकहितप्रकारि - मनस्तयाऽन्ते क्षपणत्वधारी उपेत्य वै तीर्थकरत्वनामाच्युतेन्द्रतामप्यगमं सुदामा।। 36 ।।
-वीरो.सर्ग.11। पुरूरवापर्याय
गुणचन्द्र ने महावीरचरियं में और आचार्य हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिश्लाकापुरूषचरित्र में वर्णन किया है- “अपर महाविदेह के महावप्र विजय क्षेत्र की जयन्ती नगरी में शत्रुमर्दन नामक सम्राट थे। पुरप्रष्ठिान ग्राम में भगवान महावीर का जीव उस समय नयसार नामक ग्राम चिन्तक बना। पुहइप्पइट्ठाणनामपि ग्रामे नयसारो नाम ग्राम चितंगो अहेसि।
-महावीरचरित्र, पत्र 2। तस्य ग्रामे तु पृथिवी प्रतिष्ठानाभिधेऽभवत्। स्वामिभक्तो नयसाराभिधानो ग्राम-चिन्तकः।।
-त्रिषष्टि 10/1/15 । आचार्य गुणभद्ररचित उत्तरपुराण में नयसार की घटना कुछ अन्य रूप से चित्रित की गई है। उसमें नयसार के स्थान पर पुरूरवा का नाम है। वह जाति से कोली-भील था। और जम्बूद्वीपस्थ विदेहक्षेत्र में सीतासरिता के सन्निकट पुष्पकलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के मधुवन में रहता था। उस वन में दिग्भ्रम से भ्रमित सागरसेन मुनि को मृग समझकर वह मारने के लिये उद्यत हुआ, किन्तु पत्नी ने कहा “ये वन के देवता हैं, इन्हें न मारो।"- यह सुनकर वह मुनिराज के पास गया और