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वीरोदय का स्वरूप
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31. नन्द राजा (तीर्थकर प्रकृति का बंध) 25. नन्दन राजा (तीर्थकर प्रकृति का बंध) 32. अच्युत स्वर्ग का इन्द्र 26. प्राणत स्वर्ग का देव 33. भगवान महावीर
27. भगवान महावीर भगवान महावीर दोनों परम्पराओं के अनुसार बाईसवें भव में प्रथम नरक के नारकी थे। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार वे वहाँ से निकल कर पोट्टिल या प्रियमित्र चक्रवर्ती हुए। दिगम्बर परम्परा के अनुसार नारकी जीव चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव नहीं हो सकते हैं।
महावीर के जीव ने नयसार या पुरूरवा के भव में ही सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था। अतः उसी भव से उनके भवों की गणना की गई है। नयसार या पुरूरवा के भव के पश्चात् भी अनेक भवों में सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हुई थी।
जहाँ श्वेताम्बर आचार्य 'संसारे कियन्तमपि कालमिटित्वा' लिखकर आगे बढ़ गये है, वहाँ दिगम्बराचार्य ने कुछ और भवों का वर्णन कर दिया है, जिससे संख्या में वृद्धि हो गई है। सत्ताईस भवों की परिगणता के भी दो प्रकार ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य चूर्णिवृत्ति की टीकाओं में सत्ताईसवां भव देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में जन्म लेना बताया है। वीरोदय में पूर्वभव
पूर्व-भवों का वर्णन करते हुए वीरोदय महाकाव्य में आचार्यश्री ने लिखा है कि भ. महावीर के जीव ने मारीचि के भव में उन्मार्ग का प्रचार व प्रसार कर दुष्कर्म उपार्जन किया और नाना कुयोनियों में परिभ्रमण करके अन्त में शांडिल्य ब्राम्हण और उसी पाराशरिका स्त्री के स्थावर नाम का श्रेष्ठ पुत्र हुआ। वह परिव्राजक होकर तप के प्रभाव से माहेन्द्र स्वर्ग गया। वहाँ से च्युत होकर इस जगत में परिभ्रमण करते हुये राजगृहनगर में विश्वभूति ब्राह्मण और उसकी जैनी नामक स्त्री के विश्वनन्दी नाम का पुत्र हुआ। विश्वभूति के भाई विशाखभूति का पुत्र विशाखनन्दी था। विशाखनन्दी का जीव स्वर्ग से च्युत होकर मृगावती रानी से त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ।