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आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
परिच्छेद-4 भद्रोदय महाकाव्य की समीक्षा
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आचार्य श्री ज्ञानसागर ने भद्रोदय महाकाव्य में अपना लाघव प्रदर्शित करते हुए सब गुरू-कृपा का ही फल बतलाया है, साथ ही सत्य की महिमा को अस्तित्व और नास्तित्व के विधि एवं निषेघ द्वारा बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है। इस में समुद्रदत्त द्वारा व्यापार की अनुमति लेते समय, पिता-माता आदि का वार्तालाप, रत्नों के हरण होने के समय उन्मत्त समुद्रदत्त की दीन पुकार तथा रानी की सबुद्धि एवं कुशलता-सूचक प्रयासादि सभी दृश्य रोमांचकारी रूप में प्रदर्शित किये गये हैं।' भद्रोदय की विषय-वस्तु को नौ सर्गों में प्रतिपादित किया गया
है।
कथावस्तु
श्री पद्मखण्ड.नामक नगर में सुदत्त नाम का एक वैश्य रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुमित्रा था। उन दोनों के सरलस्वभावी भद्रमित्र नामक एक पुत्र हुआ। एक दिन उसके मित्रों ने उसे समझाया कि वैश्यों को व्यावसायिक वृत्ति वाला होकर अपनी आजीविका की चिन्ता स्वयं करनी चाहिये। अतः जीवन-यापन हेतु धनार्जन के लिये हमें रत्न-द्वीप जाना चाहिये। (प्रथम सर्ग)
उच्च-शिखरों वाले विजयार्द्ध पर्वत के उत्तर में अलका नाम की नगरी में अत्यन्त यशस्वी महाकच्छ नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी दामिनी थी और पुत्री का नाम प्रियगुश्री था। जब वह युवती हुई तो राजा को उसके विवाह की चिन्ता हुई। एक ज्योतिषी ने बताया कि प्रियङ्गुश्री का विवाह स्तवकगुच्छ के महादानी राजाधिराज ऐरावण के साथ होगा। यह सुनकर राजा ने स्तवकगुच्छ नगरी के राजा ऐरावण की परीक्षा ली और पुत्री के लिये उसे योग्य समझकर उससे अपनी कन्या के