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________________ __ ९१ जैन परंपरा में पर्यावरण तकनीकी ज्ञान के प्रसार ने मानवीय उद्यम के दायरे में वृद्धि कर दी है। इससे प्रकृति के दोहन में तीव्रता आयी है, वनों का तेजी से विनाश, अनवीकृत (nonrenewable) ऊर्जा संसाधनों का बढता उपयोग नवीकृत (renewable) संसाधनों का उसके नवीकरण क्षमता से ज्यादा उपयोग आदि इसके प्रमाण हैं। डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. (World Wide Fund for Nature, initially known as World Wildlife Fund) की द्विवार्षिक रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य ने प्रकृति से व्याज के अलावा मूलधन भी खाना शुरू कर दिया है। और यह उपयोग प्रकृति की पुनरुत्पादन क्षमता से २५% अधिक है जिसके कि इस दर से २०५० ई. तक १००% हो जाने की संभावना है। अतिशय उपभोग के कारण जहाँ जैव विविधता नष्ट हो रही है वहीं मानवीय हित पर दूरगामी असर हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार १९७० ई.से २००३ ई. के बीच विभिन्न जैव प्रजातियों की संख्या में लगभग ३०% की कमी हुई है। मनुष्य के सुरक्षित भविष्य के लिए यह आवश्यक हो गया है संपोष्य विकास (sustanable development) का सिद्धान्त अपनाया जाय जिसके अनुसार प्रकृति से उतना ही ग्रहण करना चाहिए जितना उसकी पुनरुत्पादन क्षमता है। उपर्युक्त विवेचन के संदर्भ में उद्यमी हिंसा को दो भागों में बांटा जा सकता है, अनिवार्य उद्यमी हिंसा और निवार्य उद्यमी हिंसा। जीवन को सुखी बनाने के लिए किये जा रहे उद्यम के दौरान की गयी हिंसा अनिवार्य उद्यमी हिंसा है तथा जीवन को विलासितापूर्ण बनाने के लिए किये जा रहे उद्यम के दौरान की गयी हिंसा निवार्य उद्यमी हिंसा है । संकल्पी हिंसा भी एक तरह की निवार्य हिंसा है जिससे बिना किसी असुविधा के बचा जा सकता है। परन्तु सुख और विलासिता सापेक्षिक है। कोई वस्तु किसी के सुखमय जीवन के लिए आवश्यक हो सकती है तो वही वस्तु किसी के लिए विलासिता हो सकती है। जैसे कार किसी कंपनी के कर्मचारियों की आवश्यकता हो सकती है तो वही वस्तु किसी के लिए विलासिता होती है। गांधीजी ने सभी विलासितापूर्ण चीजों के उत्पादन और उपभोग को हिंसा माना है। परन्तु इसके लिए उन्होंने जो सूची बनायी वह निर्विवाद नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता और रुचि भिन्न-भिन्न होती है। इसलिए विलासितापूर्ण वस्तुओं की एक सामान्य सूची बनाना जो सभी के लिए समान रूप से स्वीकार्य हो व्यावहारिक रूप से सम्भव नहीं प्रतीत होता है। लेकिन यदि हम विचारपूर्वक अपने आस-पास देखें तो इन चीजों को चिन्हित करना कठिन नहीं है। यदि प्रत्येक व्यक्ति इनकी पहचान
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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