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________________ अनिल कुमार तिवारी आदि जीवों में सर्वाधिक पांच ज्ञानेन्द्रियों पायी जाती हैं। जीव जिस भी शरीर से सम्बद्ध होता है उसी का आकार धारण कर लेता है। इस प्रकार जैन दर्शन में जीव विषयक एक विचित्र मत मिलता है जिसमें जीव को साकार कहा गया है। जैन विचारक सभी स्थानों एवं समस्त वस्तुओं में किसी न किसी जीव का निवास मानते हैं। इस अर्थ में पर्यावरण एक जीवित समग्र है। जीवन के किसी भी रूप को क्षति पहुंचाना हिंसा माना जाता है इसलिए जैन विचारकों का अहिंसा को निरपेक्ष रूप में स्वीकार करना स्वाभाविक है। संन्यासियों के लिए जैन परम्परा में पूर्णतया अहिंसक होना आवश्यक है (महाव्रत)। इन्हें हर तरह से पांचों व्रत सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का मन, वचन, कर्म से पालन करना होता है। परन्तु समाज में कोई भी जीव पूर्णतया अहिंसक रहकर जीवित नहीं रह सकता। अर्थात् जीवित रहने के लिए कुछ मात्रा में हिंसा अनिवार्य है। गृहस्थ आश्रम न केवल एक उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन है बल्कि अन्य आश्रमों का आधार भी है। इसी बात को ध्यान में रखकर जैन दर्शन में गृहस्थों के लिए अणुव्रत का प्रावधान किया गया है जिसमें पारिवारिक और सामाजिक दायित्व के निर्वहन के लिए न्यूनतम मात्रा में हिंसा करने की अनुमति दी गयी है। मनुष्य को सामाजिक दायित्व निर्वहन के लिए किसी उद्यम का चुनना अपरिहार्य है। जैन मतानुसार व्यक्ति को उसी उद्यम को वरीयता देनी चाहिए जिसमें हिंसा की मात्रा न्यूनतम (अल्पद्रोह) हो।" इस परम्परा में हिंसा को चार कोटियों में रखा गया है। उद्यम के दौरान की गयी हिंसा को उद्यमी-हिंसा कहा गया है। पर्यावरण सम्बन्धी समस्या का सम्बन्ध विशेष रूप से इसी प्रकार की हिंसा से है। इसी तरह रोजमर्रा कार्य करते समय निराशय जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी हिंसा कहा जाता है। व्यवसाय के हिसाब से स्वीकार्य हिंसा की मात्रा भी अलग-अलग होती है। जैसे हिंसा की जो मात्रा एक व्यापारी के लिए स्वीकार्य है वह एक सैनिक के लिए अपर्याप्त है। अपनी एवं देश की सुरक्षा के लिए आक्रान्ता के विरुद्ध की गयी हिंसा को विरोधी-हिंसा कहा गया है। जैन विचारकों के अनुसार एक सैनिक को विरोधी हिंसा के रूप में सदैव सुरक्षात्मक दृष्टिकोण ही अपनाना चाहिए। हमारे देश ने सुरक्षा नीति के रूप में इसी दृष्टिकोण को अपनाया है। उपर्युक्त तीनों प्रकार की हिंसा गृहस्थ जीवन में अनिवार्य है इन्हें इस जीवन में रहते हुए निराकृत करना कठिन है। इस जीवन में संकल्पी-हिंसा से बचा जा सकता है और बचना चाहिए। इसके तहत ऐसी
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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