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________________ अनिल कुमार तिवारी अनेकान्तवाद तथा नैतिक सिद्धान्त अहिंसा में दिखायी देता है। इन दोनों सिद्धान्तों को प्रसंग के अनुकूल संक्षेप में समझना उपयोगी है। अनेकान्तवाद ___ अनेकान्तवाद सापेक्षिक बहुत्ववाद (Relative pluralism) का सिद्धान्त है। इसके अनुसार संसार में अगणित चेतन और जड वस्तुएं है तथा उनमें अनन्त गुण हैं। इन अगणित वस्तुओं और उनके गुणों से परस्पर निर्भरता का सम्बन्ध है (परस्परोपग्रहोपजीवानाम्)। जगत् की स्थिरता और व्यवस्था का आधार यही परस्पराश्रयता है। वस्तुओं का अस्तित्व अनेक गुणों पर निर्भर है और इन गुणों के माध्यम से वे जगत् की अन्य सभी वस्तुओं से विभिन्न सम्बन्धों से जुडी हुई हैं। प्रत्येक सम्बन्ध वस्तु के एक पहलू का निर्धारण करते हैं (नय)। इसलिए एक वस्तु को पूरी तरह जानने का दावा तभी किया जा सकता है जब वस्तु के सभी पहलुओं को जाना जाय। वस्तु के सभी पहलुओं को जानने का अर्थ है उसका जगत् की शेष वस्तुओं से सम्बन्धों का ज्ञान। तर्करहस्यदीपिका में कहा गया है कि जो व्यक्ति एक वस्तु को समग्र रूप से जान लेता है वह सभी वस्तुओं को जान लेता है और जो सभी वस्तुओं को जान लेता है वह एक वस्तु को जान लेता है। किसी वस्तु के समग्र रूप का ज्ञान एक सूचना मात्र नहीं है इससे उस वस्तु के प्रति हमारे व्यवहार का निर्धारण होता है। वास्तव में मनुष्य अपने कृत्यों के द्वारा जगत् की वस्तुओं के बीच सम्बन्धों की ही पुनर्रचना करता है। परन्तु सामान्य मनुष्य के ज्ञान का दायरा सीमित है और इस सीमित दायरे में ही वह सम्बन्धों की स्थापना-पुनर्स्थापना का प्रयास करता है। हम यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य का समस्त जगत् व्यापार सम्बन्धों का ही व्यवस्थापन है। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य किसी वस्तु की सांगठनिक व्यवस्था में परिवर्तन करता है तो वह उस वस्तु के विभिन्न भागों के बीच सम्बन्धों को बदलता है। इसी प्रकार जब वह किसी कमरे की व्यवस्था को बदलता है तो वह कमरे की वस्तुओं के बीच सम्बन्धों में परिवर्तन करता है। अपने वातावरण में व्यवहार करते समय वह आस-पास की वस्तुओं की व्यवस्था में परिवर्तन करता है। ___ यहाँ पर दो बातें उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि विवेकशील प्राणी होने के कारण मनुष्य अपने वातावरण में किसी भी नवीन सम्बन्ध की स्थापना के पूर्व पक्ष-विपक्ष पर विचार अवश्य करता है। विचारणा के अन्तर्गत यह अपनी जानकारी के अनुसार नये सम्बन्ध के संभावित परिणाम की गणना करता है। दूसरे शब्दों में वह विचार
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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