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जैन परंपरा में पर्यावरण
अनिल कुमार तिवारी
" जो व्यक्ति पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा वनस्पतियों की उपेक्षा या तिरस्कार करता है, वह स्वंय के अस्तित्व जो कि वस्तुतः इन तत्त्वों से अपृथक् है, का तिरस्कार करता है।” -महावीर
प्रस्तावना :
आर्य सय्यम्भव रचित दसवेयालिय सुत्त' (संस्कृत - दशवैकालिक सूत्र) के प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया है :
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइं रसं ।
न य पुप्फं किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ।। २।।
एमेए समणा मुत्ता जे लाये संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रथा || ३ ||
अर्थात् एक श्रमण को गृहस्थों से जीवित रहने के लिए उसी प्रकार का भोजन प्राप्त करना चाहिए जिस प्रकार एक भ्रमर विभिन्न पुष्पों को क्षति पहुँचाये बिना पराग-रस का पान करते है। गृहस्थ जीवन अन्य प्रकार के मानव जीवन का आधार होता है क्योंकि इसी जीवन में धनार्जन और उपभोग की आंकाक्षा की जाती है तथा विद्यार्थी-वृद्ध-संन्यासी सभी का पोषण यही से होता है। जैन सहित सम्पूर्ण भारतीय परम्परा में संन्यास जीवन को आदर्श माना जाता है और इसमें व्यक्ति द्वारा ऐसे आचरण की अपेक्षा की जाती है जिससे समाज पर कोई हानिकारक प्रभाव न हो। दूसरे शब्दों में संन्यासी को समाज से उतना ही उपभोग्य प्राप्त करने की अपेक्षा की जाती है जिससे ऐसा प्रतीत हो कि संन्यासी कोई उपभोग कर ही नहीं रहा है। मनुष्य और प्रकृति के बीच इसी तरह का सम्बन्ध एक आदर्श हो सकता है। आज हम पर्यावरण संकट के जिस दौर से गुजर रहे हैं उससे मुक्त होने के लिए जैन परम्परा यही सुझाव देना चाहेगी कि मनुष्य को प्रकृति से उतना प्राप्त करना चाहिए कि जितना कि प्रकृति का पुनरुत्पादन करने की क्षमता के भीतर हो और उसमें कोई अपूर्णनीय क्षति न हो तथा पर्यावरण में असन्तुलन न पैदा हो। अर्थात् किसी युग विशेष के मानवीय अस्तित्व का प्रकृति पर कोई निषेधपरक स्थायी चिन्ह अंकित नहीं होना चाहिए। इस सुझाव का वैचारिक आधार जैन दर्शन के तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७ - नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५