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मनोज कुमार तिवारी
अभ्यास, क्रमशः होता है और उस क्रम का एक ही जीवन में आरम्भ और समाप्त होना भी साधारणतया सम्भव नहीं है। अतः ज्ञान को प्राप्त करने और उसको अभ्यास द्वारा सिद्ध करने में अनेक जन्म लग जाते हैं। कितने समय और कितने जन्मों में ज्ञान की सिद्धि और उससे जीवन्मुक्ति की प्राप्ति होगी यह प्रत्येक व्यक्ति के अपने ही पुरुषार्थ पर निर्भर हैं। जिनमें अधिक लगन होती है और जो अधिक यत्न करते हैं, वे जल्द ही परम पद को प्राप्त कर लेते हैं। जब साधक को अत्यन्त तीव्र वैराग्य और तीव्र मुमुक्षा होती है तब उसे क्षणभर में मोक्ष का अनुभव हो जाता है। इसलिए मोक्ष की वासमा होने और मोक्ष का अनुभव होने में कितने समय का अन्तर है, यह नहीं बताया जा सकता। ज्ञानी और विद्वान लो केवल इसी बात का निर्णय कर सकते हैं कि ज्ञान-मार्ग का क्रम क्या है, किन-किन सीढ़ियों पर चढ़कर ज्ञान की सिद्धि का इच्छुक अपने ध्येय पर पहुँच सकता है। ज्ञान के मार्ग पर जो-जो विशेष क्रमिक अवस्थाएँ आती है उनका नाम योगवासिष्ठ में भूमियाँ अथवा भूमिकायें हैं । जैन दर्शन में इनका नाम गुणस्थान रखा है, पातञ्जल योग में योग के अंग कहा है । जैनों के अनुसार चौदह गुणस्थान है, बौद्धों के अनुसार दस भूमियाँ हैं, पतञ्जलि के अनुसार योग के आठ अंग है। योगवासिष्ठ ने ज्ञान की सात भूमिकाएँ मानी है। हम यहाँ पर
जैन दर्शन के चौदह गुणस्थानों एवं योगवासिष्ठ के भूमिकाओं का विवेचन करेंगे। ___ जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास क्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गयी हैं जो चौदह गुणस्थान के नाम से जाना जाता है। आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान जैन चारित्र की चौदह सीढ़ियाँ हैं। साधक को इन्हीं सीढ़ियों से चढ़ना उतरना पड़ता है। आत्मा की विकास-प्रक्रिया में उत्थान-पतन का होना स्वाभाविक है। आत्मशक्ति की विकसित और अविकसित अवस्था को ही जैन परम्परा में गुणस्थान कहा गया है। चौदह गुणस्थान इस प्रकार है- (१) मिथ्यात्व (२) सास्वादन (३) मिश्रदृष्टि ४) अविरत सम्यक् दृष्टि (५) देशविरति सम्यक् दृष्टि (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (९) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोग केवली (१४) अयोग केवली। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम सम्यक् दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँचवे से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित है। तेरहवाँ एवं चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है।