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जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
मनोज कुमार तिवारी
साधना-पद्धति में आध्यात्मिक विकास या नैतिक विकास का अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। चाहे वह वैदिक पद्धति हो, अथवा अवैदिक, सभी में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं को स्वीकार किया गया है। आध्यात्मिक विकास को व्यवहारिक रूप में चारित्रिक विकास की संज्ञा से विभूषित किया जा सकता है, क्योंकि चारित्र की विविध दशाओं के आधार पर ही आध्यात्मिक विकास की भूमिओं या अवस्थाओं का सहज रूप में अनुमान किया जाता है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही साधक का लक्ष्य माना गया है। आध्यात्मिक विकास का तात्पर्य ही होता है आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति । यदि हम पारिभाषिक रूप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि आत्मा का स्वरूप में स्थित हो जाना ही आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति है । यही साधक का परम लक्ष्य भी है। साधक का स्व-स्वरूप में स्थित होने के लिए साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना पडता है । यद्यपि आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध ज्ञान एवं सुखमय होता है।
मोक्ष प्राप्ति की उत्तम साधन क्या है, इस विषय पर मतभेद है लेकिन योगवासिष्ठ का स्पष्ट मत है कि ज्ञान के सिवाय मोक्ष का कोई उपाय नहीं है। वह ज्ञान केवल वाचिक ज्ञान नहीं है, न वह तर्कमात्र है। मुक्ति का अनुभव करने वाला ज्ञान आत्मा का अनुभव है और वह अनुभव वास्तविक होना चाहिए, केवल कथन मात्र नहीं । जीव को ब्रह्म दृष्टि प्राप्त करके, उसमें आरुढ होकर उस दृष्टि के अनुसार व्यवहार भी करना है । यदि हमारा जीवन हमारी उच्चत्तम दृष्टि के अनुसार नहीं है तो हमारा ज्ञान परिपक्व ज्ञान नहीं है। केवल वाद-विवाद और जीविका के लिए जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह ज्ञान ऐसा नहीं है जो मोक्ष पद को दिला सके। ज्ञानी वह है जिसका जीवन आध्यात्मिक जीवन हो। यदि जीवन को ऊँचा बनाने के लिए ज्ञान प्राप्त नहीं किया बल्कि केवल नाम, यश और जीविका आदि के लिए ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त किया है, तो ऐसे ज्ञानी को योगवासिष्ठ में ज्ञानी न कहकर 'ज्ञान बन्धु' कहा जाता है।
इस ज्ञान को पूर्णतया प्राप्त करने के लिये अभ्यास की आवश्यकता है। ज्ञान का
परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७ - नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५