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आचार्य भावसेन कृत वेद प्रामाण्यवाद की समीक्षा
सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिपृष्ठद दशाङ्गुलम्।।६ "उस पुरुष के हजार सिर थे, हजार आँखे थी, हजार पैर थे, वह भूमि को सब ओर से घेरकर दस अंगुल अधिक रहा।" उपरोक्त वाक्य के विरोध में निम्न सूत्र है__ अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहरण्यं पुरूषं महान्तम्।।" 'अग्रणी महान पुरुष वह है जिसके हाथ-पैर नहीं हैं किंतु जो वेगवान है, आँखे न होने पर भी जो देखता है, कान न होते हुए भी जो सुनता है तथा जो सब जानता है किंतु उसे कोई नहीं जानता।' यह वाक्य भी है। ___ इस विरोध के समाधान के लिए कहा जाता है कि ईश्वर तो सदा मुक्त है किंतु भक्तों के अनुग्रह के लिए शरीर धारण करता है। अत: ये दोनों वर्णन दो अवस्थाओं के लिए हैं। आचार्य भावसेन के अनुसार यह समाधान उपयुक्त नहीं है। जो मुक्त है वह सदाचार-दुराचार से रहित होता है अत: उसके कोई अदृष्ट (पुण्य-पाप) नहीं होता तथा अदृष्ट के बिना शरीर धारण करना संभव नहीं है। अत: ईश्वर मुक्त है तथा शरीर धारण करता है। ये कथन स्पष्टतः परस्पर विरुद्ध है।
वेदवाक्यों के परस्पर विरोध का एक उदाहरण और है
'तरति शोकं तरति पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेघेन यजते य उ चैनमेवं वेद।' ___ अर्थात् 'जो अश्वमेघ यज्ञ करता है उसका शोक-पाप दूर होता है, उसे ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा मिलता है। जो इस प्रकार जानता है उसे भी यही फल मिलता है।' इस प्रकार यहाँ अत्याधिक व्यय तथा प्रयास से होने वाले यज्ञ का फल तथा उस यज्ञ का जानने मात्र का फल समान कहा गया है जो असंभव है। वेद के ज्ञान की महिमा निरूक्त में भी कही है
'स्थाणुरयं भारहार: किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्।
अर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा। अर्थात् “जो वेद को कण्ठस्थ करता है किंतु उसका अर्थ नहीं जानता वह सिर्फ बोझा ढोनेवाले खंभे के समान जड़ है, जो उस अर्थ को जानता है वह सब मंगल प्राप्त करता है तथा ज्ञान से पाप को दूर कर स्वर्ग प्राप्त करता है।"
इस प्रकार यदि वेद ज्ञाता को ब्रह्महत्या से छुटकारा मिलने की बात सही है तो उसे ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करना आवश्यक नहीं होगा। किंतु इसके विरुद्ध वैदिक