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________________ कर्म, बंधन, मोक्ष : जैन और अद्वैत दृष्टिकोण रञ्जन कुमार बंधन और मोक्ष वह दार्शनिक प्रश्न है जिसपर निरंतर विचार किया जाता रहा है। विचार श्रृंखला अत्यंत गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण है। इस संबंध में जैन दार्शनिकों एवं अद्वैत वेदांत विशेषकर शांकरमत की क्या प्रतिक्रिया हें इसी पर चिन्तन करने का प्रयास प्रस्तुत पत्र में किया गया है। बंधन- मोक्ष दुःख अथवा पीडा बंधन है जबकि इससे मुक्ति मोक्ष है। इसका कारण क्या है? यही प्रश्न दार्शनिकों के लिए एक महत्त्वपूर्ण पडाव है। अद्वैत-वेदान्त के अनुसार बंधन का मूल कारण अविद्या या अज्ञान है।' जबकि जैनदार्शनिक अविद्या के साथसाथ अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग को बंधन का प्रमुख कारण मानते हैं। यह अविद्या जीव अथवा आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है, वरन् स्वयं जीव की मिथ्या कल्पना का परिणाम है। वस्तुतः जीव के बंधन का कारण स्वयं उसके मन में ही है और न ही बाहर किसी अन्य वस्तु में, बल्कि इनके निमित्त से मन में राग-द्वेष रूपी जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन भावों के कारण ही बन्धन होता है। वस्तुतः बंधन का मूल कारण राग-द्वेष को माना गया है जो मोह के कारण उत्पन्न होता है। यही मोह जीव को बंधन में डाल देता है। यह मोह जीव का स्वाभाविक गुण है। इस संबंध में आचार्य शंकर का मत उल्लेखनीय है- यदि हम यह मानकर चलें कि अविद्या जीव का स्वाभाविक गुण है तो ऐसी परिस्थिति में अज्ञान का कभी निवारण ही नहीं हो सकता है और जीव निरंतर बंधन में पड़ा रहेगा।' इसलिए यह बंधन भी केवल व्यवहारिक दृष्टिकोण से सत्य है। पारमार्थिक सत्य तो यह है कि जीव न कभी बंधन में पड़ता है और न कभी मोक्ष को प्राप्त करता है। शंकर कहते हैं कि बंधन और मोक्ष दोनों केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही सत्य हैं। ___ अद्वैत वेदान्त में बंधन के कारकों का निवारण कर मुक्ति प्राप्त करने में ज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना गया है। शंकराचार्य दृढतापूर्वक इस सिद्धांत को प्रतिपादित करते हैं कि ज्ञान (आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान) स्वयं मोक्ष है। मोक्ष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “आत्मा की अपने स्वरूप में स्थिति ही मोक्ष है।” इसकी दूसरी परिभाषा यह दी गई है कि “अविद्या की निवृत्ति ही मोक्ष है", मोक्ष और अविद्यानिवृत्ति एक ही है। शंकराचार्य का कहना है कि मोक्ष की प्राप्ति कर्म से या परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७-नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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