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________________ अनेकान्त कुमार जैन हैं, एक साथ नहीं। नाटक में यह भी तो निश्चित होता है कि किस दृश्य के बाद कौन सा दृश्य आयेगा; उसी प्रकार पर्यायों में भी यह निश्चित होता है कि किसके बाद कौन सा पर्याय आयेगा। जिस प्रकार जिसके बाद जो दृश्य आना निश्चित है, उसके बाद वही दृश्य आता है, अन्य नहीं; उसी प्रकार जिसके बाद जो पर्याय (कार्य) होना होता है, वही होता है, अन्य नहीं। इसी का नाम 'क्रमबद्धपर्याय' है।' __ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय कहते हैं कि, “जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियत रूप से जाना है; उस जीव के, उस देश में, उसी काल में, उसी विधान से, वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालने में समर्थ है? अर्थात् उसे कोई नहीं टाल सकता है।" अतः संक्षेप में हम देखें तो सिद्धान्त यह स्थिर हुआ कि 'जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस काल में, जिस निमित्त व जिस पुरुषार्थ पूर्वक, जैसी होनी है; उस द्रव्य की, वह पर्याय, उसी काल में, उसी निमित्त व उसी पुरुषार्थ पूर्वक वैसी ही होती है; अन्यथा नहीं' - यह नियम है। ___ इस चिन्तन की तुलना दार्शनिक जगत् में नियतिवाद से की जाती है। क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्त पर प्रश्न चिह्न लगता है कि 'सब कुछ निश्चित है' इसी समान मान्यता के कारण यह सिद्धान्त भी क्या एकान्त नियतिवाद है? 'नियति' है ही नहीं ऐसा तो नहीं है क्योंकि जैन दर्शन के पंथ समवाय सिद्धान्त में नियति भी एक कारण है। सिद्धसेन दिवाकर ने पाँच समवाय में नियति को भी एक कारण माना है। किन्तु क्रमबद्धपर्याय में एकान्त रूप से मात्र नियति को कारण नहीं माना जाता; शेष चार समवाय के बिना तो 'क्रमबद्धपर्याय' भी घटित नहीं होती। इसलिए क्रमबद्धपर्याय' भी अनेकान्त परक चिन्तन है; एकान्त परक चिन्तन नहीं। कानजी स्वामी के शब्दों में 'नियत के साथ ही पुरुषार्थ, ज्ञान, श्रद्धादि धर्म भी विद्यमान ही है। नियत स्वभाव के निर्णय के साथ विद्यमान सम्यक् पुरुषार्थ को - सम्यक् श्रद्धा को, सम्यक् ज्ञान को स्वभाव को आदि को स्वीकार न करें तभी एकान्त नियतवाद कहलाता है। अज्ञानी तो, नियत वस्तु स्वभाव के निर्णय में आ जाने वाला ज्ञान का पुरुषार्थ, सर्वज्ञ के निर्णय का पुरुषार्थ, स्वसन्मुख श्रद्धा-ज्ञानादि को स्वीकार करे बिना ही नियत की (जैसा होना होगा सो होगा-ऐसी) बात करते हैं, इसलिए उनको तो एकान्त नियत कहा जाता है; परन्तु ज्ञानी तो नियत वस्तु स्वभाव के निर्णय में साथ ही विद्यमान
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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