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अनेकान्त की आध्यात्मिक चिन्तन धारा
___ अनेकान्त कुमार जैन
कानजी स्वामी जैन अध्यात्म के सूक्ष्म विश्लेषक थे। उन्होंने जैन अध्यात्म पर गहराई से विचार किया और अनेकान्त सिद्धान्त के उस आध्यात्मिक पक्ष को उद्घाटित किया जो आज तक अछूता था। इनके इस विश्लेषण से जैन चिन्तन को कई नये आयाम प्राप्त हुए। 'सत्य' के सन्दर्भ में एक बात प्रसिद्ध है कि संपूर्ण सत्य को कोई भी दार्शनिक व्याख्यायित नहीं कर पाया किन्तु जब कोई दार्शनिक सत्य को कहने का साहस करता है तो ऐसा भी नहीं है कि वह असत्य ही प्रतिपादित करता हो। वास्ताविकता यह है कि हमारा कोई भी अनुभव भ्रांत नहीं होता; यदि सत्य का कोई अंश हमारे अनुभव में आ रहा है तो वह निश्चित ही अस्तित्व में है। दार्शनिक जब उसको कहता है तब यह निश्चित ही सत्य के महत्त्वपूर्ण पक्ष की व्याख्या कर रहा होता है। उसका यह पक्ष सत्य के अनुसंधान में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है; इसलिए सत्य के सच्चे खोजी के पास उस पक्ष के विशेष या निषेध के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता है। कानजी स्वामी ने धार्मिक व दार्शनिक विचारक जगत को विमर्श के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण विषय दिये हैं जिसमें क्रमबद्धपर्याय' का सिद्धान्त प्रमुख है। निमित्त-उपादान, निश्चय नय, व्यवहारनय, द्रव्य और पर्याय के सन्दर्भ में भी उनका चिन्तन अनूठा है जो हमें भगवान महावीर की आध्यात्मिक दृष्टि को समझने में मदद देता है। स्याद्वाद, अनेकान्त और नय ये तीन सिद्धान्त जैनदर्शन की आत्मा हैं। स्पष्ट है कि इनमें बिना अध्यात्म जैसे गहरे पक्ष कर विचार करना कम से कम जैन दृष्टि में खतरे से खाली नहीं। कानजी स्वामी ने मिथ्या एकान्त से दूर रहकर इसी संदर्भ में अनेकान्त की सूक्ष्मता को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। उनकी इन्हीं मौलिक विशेषताओं के कारण ये बीसवी सदी के समकालीन महत्त्वपूर्ण दार्शनिक के रूप में देश-विदेश में प्रतिष्ठित हुये हैं। क्रमबद्ध पर्याय और एकान्त
क्रमबद्धपर्याय सिद्धान्त के अनुसार वस्तु में तीनों काल की अवस्थायें क्रमबद्ध ही होती है; कोई अवस्था आगे पीछे नहीं होती - ऐसा ही वस्तु स्वभाव है। डॉ. हकुमचन्द भारिल्ल इसी को समझाते हुए लिखते हैं कि 'जिस प्रकार नाटक में दृश्य क्रमशः आते हैं, एक साथ नहीं; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में पर्यायें क्रमशः ही होती
परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७-नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५