SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४५ जैन अव्यक्तव्यता और बौद्ध अव्याकृतवाद.... में अव्यक्तव्य वाणी की सामान्य एवं व्यापक असमर्थता है, अन्तिम अर्थ में अवक्तव्य दो धर्मों को युगपत् नहीं कह सकने की दृष्टि। जो भी हो, कुल विवेचन का अर्थ यह है कि वाणी कहीं भी युगपततः प्रतिपादन में असमर्थ है, चाहे वह वस्तु के समग्र स्वरूप को लेकर हो या किन्हीं दो धर्मों का लेकर हो। इसके अतिरिक्त एक अन्य बात यह है कि भाषा वस्तु के किसी धर्म को हू-ब- . हू प्रस्तुत करने में असमर्थ है। भाषा वैज्ञानिकों की ऐसी मान्यता है कि अर्थ बोध की प्रक्रिया में शब्द अपने अर्थ या विषय का प्रतिनिधित्व तो करते हैं पर उनका हू-बहू बोध नहीं करा पाते हैं। क्योंकि उनकी वाच्यता-सामर्थ्य सीमित है। शब्द की शक्ति की इस सीमितता का कारण यह है कि अनुभूतियों एवं भावनाओं की जितनी विविधतायें है उतने शब्द नहीं हैं। अपने वर्ण्य-विषय की अपेक्षा शब्द-संख्या और शब्द-शक्ति दोनों ही सीमित है। जैसे एक शब्द मीठा है। यह शब्द गन्ने की मिठास, गुड की मिठास, आम की मिठास, रसगुल्ले की मिठास, तरबूज की मिठास आदि सब को सम्बोधित करता है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या सबकी मिठास एक ही तरह की है। निश्चय ही, सबकी मिठास अलग-अलग है। एक तरह की नहीं है फिर भी हम एक ही शब्द का प्रयोग सबके लिए करते हैं। यह हमारी विवशता है। इसी संदर्भ में एक दूसरी बात यह है कि शब्द अपने अर्थ या विषय की ठीक ठीक अनुभूति अपने श्रोता को नहीं करा पाता है। जैसे यदि किसी ऐसे व्यक्ति के समक्ष गुड का विवेचन किया जाय जिसने कभी गुड का स्वाद नहीं लिया है। तब लाख प्रयत्न करके भी हम उसे गुड के मिठास की अनुभूति शब्द द्वारा नहीं करा सकते हैं। इसी प्रकार जिसने एक वस्तु को कभी नहीं देखा है यदि उसके समक्ष हम अनेक उपमाओं या उदाहरणों द्वारा उसकी व्याख्या करें तो लाख प्रयत्न करने पर भी हम उसको उस प्रकार नहीं समझा सकते हैं जिस प्रकार वह उसे एक बार देखकर समझ लेता है। अतः स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु या धर्म का बोध शब्द द्वारा दृष्यमान रूप में या अनुभूति में करना या कराना चाहे तो उसे अवक्तव्य ही कहना पडेगा। यही जैन के अवक्तव्य का लक्ष्य है। इस प्रकार जैन अवक्तव्य के द्वारा तत्त्व विवेचन के साथ-साथ भाषा की अशक्यता /असमर्थता/ विवशता को अभिव्यक्त करता है। इसी तरह की मिलती-जुलती विचारधारा बौद्ध धर्म में भी है। जिसे अव्याकृतवाद कहते हैं। भगवान् बुद्ध तत्कालीन तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों के संदर्भ में या तो मौन रहे या उन्हें असमुचित कह कर टाल दिये और उनके संदर्भ में यदि कुछ कहना ही आवश्यक हुआ तो
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy