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________________ १४४ भिखारी राम यादव शब्द एक काल में ही प्रधानता से सत्त्व और असत्त्व दोनों का युगपत् प्रतिपादन नहीं कर सकते, क्योंकि उस प्रकार प्रतिपादन करने की शक्ति शब्द में नहीं है क्योंकि सभी शब्दों में एक ही पदार्थ को विषय करना सिद्ध है। अतः जो सत्त्वादि धर्मों में से किसी एक धर्म के द्वारा पदार्थ वाच्य है, वही सत्त्व, असत्त्व, उभय धर्म से अवाच्य है । " इससे यह स्पष्ट है कि कालक्रम से वस्तु के अस्ति, नास्ति आदि धर्म पृथक् पृथक् रूप से किसी उद्देश्य के विधेय भले ही बन जाय, पर युगपत् रूप से किसी उद्देश्य का विधेय बनना असम्भव ही है। यही शब्द की असमर्थता है, वाणी की निरीहता है । इसी को अभिव्यक्त करना अवक्तव्य का उद्देश्य है । पुनः श्लोकवार्तिक में इसे स्पष्ट किया गया है - "जब दो प्रतियोगी गुणों के द्वारा अवधारण रूप से युगपत् एक काल में एक शब्द से समस्त वस्तु के कहने की इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है, क्योंकि वैसा शब्द और अर्थ नहीं है । ४ इस प्रकार अवक्तव्य का मूलार्थ है युगपत् कथन में भाषा की असमर्थता, अवक्तव्यता, निरीहता व विवशता को स्पष्ट करना। स्पष्ट है कि यहाँ अवक्तव्य के दो अर्थ हो जाते हैं : १. वस्तु के समग्र स्वरूप को अवाच्य कहना और २. वस्तु के किन्ही दो धर्मों को युगपततः अव्याख्येय कहना । अवक्तव्य के इन दोनों ही रूपों का विवेचन जैनागमों में सर्वत्र प्राप्त होता है। डॉ. रामजी सिंह ने अवक्तव्य के इन स्वरूपों का विवेचन करते हुए कहा है कि “वस्तु का स्वरूप कुछ इतना संश्लिष्ट एवं सूक्ष्म होता है कि शब्द उसके अखण्ड अन्तस्थल तक नहीं पहुँच पाते हैं। फिर भी उसका वर्णन तो किया ही जाता है। पहले अस्ति रूप वर्णन होता है किन्तु जब वहीं अपर्याप्तता और अपूर्णता प्रकट होती है तो उसका नास्ति रूप वर्णन होता है किन्तु फिर भी जब वस्तु की वास्तविक एवं अनन्तसीमा को वह छू नहीं पाता है तो अस्ति एवं नास्ति के युगपत् उभय रूप में वर्णन करने का प्रयास करता है। लेकिन फिर भी वह वस्तु की समग्र वास्तविकता का जब दर्शन नहीं कर पाता है तो वाणी की निरीहता, शब्द की अक्षमता एवं असमर्थता पर खींझकर उसे अवक्तव्य, अनिर्वचनीय, अव्याकृत, अगोचर, 'वचनातीत आदि कह देता है या मौन धारण कर लेता है।" पुनः उन्होंने अवक्तव्य के दूसरे अर्थ को प्रस्तुत करते हुए कहा है, अवक्तव्य का अर्थ अस्ति एवं नास्ति का युगपत् वर्णन करने की शाब्दिक अक्षमता है। दोनों अर्थों में वस्तु तत्त्व के स्वरूप प्रकाशन में वाणी की असमर्थता को ही 'अवक्तव्य' कहा जायेगा। लेकिन पहले अर्थ
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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