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________________ १२४ अनिल कुमार सोनकर मुख्यतः इसके मूल में संग्रह-प्रवृत्ति काम करती है। भौतिक जीवन को सम्यक्-रूपेण सम्पन्न करने हेतु चेतना को अनेकानेक वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती है, लेकिन जब यही आवश्यकता आसक्ति में परिणत हो जाती है तो संग्रह-प्रवत्ति का प्रादुर्भाव होता है। यह अभाव स्वाभाविक नहीं है, 'प्रत्युत तृष्णा प्रसूत मानसिक व्याधि है, जिसके मूल में संग्रहेच्छा और भोगेच्छा की प्रवृत्ति विद्यमान है। साथ ही सर्वस्वीकृत धारणा है कि स्वाभाविक अभाव की पूर्ति तो सम्भव है, लेकिन तृष्णा जनित अभाव की नहीं। यही विषमता विचारों पर केन्द्रित होकर वैचारिक विषमता के रूप में प्रकट होती है। अनेकानेक सिद्धान्त और उनसे प्रादर्भूत वैचारिक मतभेद सामाजिक जीवन को अत्यधिक दुषित कर रहे हैं। वर्तमान में विश्व में व्याप्त संघर्षों के मूल में राजनैतिक अथवा आर्थिक विचार उतने महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना वैचारिक आधिपत्य की स्थापना का। ये समस्त विषमताएँ सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं और नैतिकता के बाह्य पक्ष को प्रभावित करती हैं। इनका प्रकटन आन्तरिक होता है। नैतिकता का आन्तरिक आधार मनोजगत् है, जिसे प्रभावित करने में चतुर्विध कषाय मूल हेतु हैं। यदि व्यक्ति सम्बन्धी विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाय तो यह स्पष्ट परिलक्षित होगा कि मनोजगत् की विषमता उक्त कषाय प्रसूत हैं। एतदर्थ कषायों पर विजय-लाभ द्वारा मानसिक विषमता के विसर्जन का जैन परम्परा में निरूपण हुआ है। कषायों की पूर्ण समाप्ति कर ही एक पूर्ण व्यक्तित्व का प्रकटन होता है। ध्यातव्य है कि अब तक उन पक्षों का निरूपण हआ जिससे सामाजिक जीवन दषित होता है। सामाजिक जीवन को स्थायित्व व संतुलन प्रदान करने वाले तत्त्वों का विघटन होता है, जिसका प्रभाव परिवार समाज व राष्ट्र सभी पर पड़ता है। इसी के प्रभाव में मानव भौतिकता की आंधी में बहिर्मुखी बनकर उन जीवन-मूल्यों का परित्याग कर रहा है, जिससे वह सुख, समृद्धि शान्ति, विनयशीलता, एकता, समता, संयम प्रभृति सद्गुणों को प्राप्त करता है। मानव अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण ही विषमता, हिंसा, स्वार्थपरता, अन्याय, अत्याचार इत्यादि को प्राप्त कर रहा है, जिससे वह स्वयं अशान्त व व्यथित है। परिवार, समाज व राष्ट्र परेशान व चिन्तित हैं। आज समाज में यह धारणा प्रबल रूप धारण करती जा रही है-नैतिक एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा रखने वाला मनुष्य सुख-सुविधा की दृष्टि से हानि में रहता है। एतदर्थ प्रगति के नाम पर आज मानव उक्त नैतिक जीवन मूल्यों एवं आध्यात्मिक जीवन के प्रति औदासिन्य
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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