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________________ सामाजिक नैतिकता की वर्तमान में प्रासंगिकता : जैन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में १२३ ही 'स्व' तथा 'पर' के आविर्भाव का कारण है। नैतिक चिंतन में इन्हें 'राग तथा 'द्वेष' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसमें 'राग' आकर्षण का सिद्धान्त है, जबकि 'द्वेष' विकर्षण का । इन्हीं के कारण चेतना में सदैव तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व चलता रहता है। यद्यपि चेतना अपनी स्वाभाविक शक्ति द्वारा सदैव ही साम्यावस्था के लिए प्रयासरत रहती है। लेकिन राग और द्वेष किसी भी स्थायी संतुलन को सम्भव नहीं होने देते । यही चेतना जब राग, द्वेष से युक्त हो जाती है, तो विभावदशा / विषमता को प्राप्त होती है । चित्त की विषमावस्था ही समग्र दोषों एवं अनैतिक आचरण की जन्मभूमि है। राग-द्वेष से उत्पन्न दोष ही व्यक्ति, परिवार, समाज एवं विश्व के लिए विषमताओं के वशीभूत होकर व्यक्ति अनैतिक कृत्यों का सम्पादन करता है, जिससे परिवार, समाज, देश व विश्व का अहित होता है। यही कारण है कि भारतीय नैतिकता में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यग् जीवन की अनिवार्य शर्त मानी गयी है। प्रत्येक युग में मानव-जीवन की समस्याएँ लगभग समान रही हैं। वस्तुतः मानव जीवन की समस्याएँ (व्यवहारिक एवं आन्तरिक दोनों) विषमता जनित हैं। समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन की समस्याएँ प्रमुखतः चार रूपों मे प्रकट होती हैं- सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक और मानसिक । इन समस्याओं के मूल में मुख्यतः व्यक्ति की रागात्मक प्रवृत्ति काम करती है । मानव जीवन की समस्याएँ चाहे सामाजिक जीवन से जुडी हों अथवा पारस्परिक सम्बन्धों (व्यक्ति और परिवार, व्यक्ति और नीति, व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और राष्ट्र तथा व्यक्ति और विश्व) से, जब तक इनमें रागात्मक प्रवृत्ति हेतु रूप में उपस्थित होगी, तब तक इनमें विषमताएँ / समस्याएँ स्वाभाविक रूप से रहेगी। परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और राष्ट्रवाद का उद्भव भी अस्तित्व में रहेगा। आज के सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में व्यवधान स्वरूप ये तत्त्व मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, सम्प्रदायिक प्रभृति निकृष्ट स्वार्थों से ऊपर आने नहीं देते। वस्तुतः यही सामाजिक विषमता की अवस्था है। सामाजिक जीवन में व्याप्त विषमता के मूल में जैन परम्परा में प्रतिपादित राग के सहप्रत्यय कषाय (संग्रह, आवेश, गर्व और माया) हैं। इन कषाओं की उपस्थिति में ही शोषण, निरपेक्ष- व्यवहार, विश्वासघात, घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार, संघर्ष, युद्ध प्रभृति का प्रादुर्भाव एवं विकास होता है। आर्थिक विषमता व्यक्ति और भौतिक जगत् के सम्बन्धों से उत्पन्न विषमता है। -
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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