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नीतू बाफना निर्लोभी क्यों झूठ बोलेगा, क्यों चोरी करेगा और वह व्यभिचारी भी क्यों होगा? इन दोनों का ३६ का आँकडा हैं अर्थात् जहाँ प्रकाश है वहाँ ये अंधेरे रूप अवगुण नहीं रह सकते। इसलिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य की जड अपरिग्रह है। और आचारांग सूत्र अ. ५, उ २, सूत्र १५५ में कहा है कि जो परिग्रह से विरत है उसमें ब्रह्मचर्य होता है। अर्थात् अपरिग्रही ब्रह्मचारी है।
अपरिग्रह को समझने के लिए परिग्रह का ज्ञान पहले होना आवश्यक है। आगमकारों ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए कहा है-'परिगृह्यते आदीयतSस्मादिति परिग्रहः। मूर्छाभावेन ममेति बुद्ध्या गृह्यते इति परिग्रहः।' किसी वस्तु का समस्त रूप से ग्रहण करना अथवा ममत्व बुद्धि से, मेरेपन की बुद्धि में मूर्छावश जिसे ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है। परिग्रह के भेद ___ अंतरंग भाव परिग्रह को कहते हैं जबकि बाह्य संयोगी पदार्थों का संबंध बहिरंग परिग्रह कहलाता है। बहिरंग परिग्रह अंतरंग परिग्रह का निमित्त है। अंतरंग परिग्रह १. मिथ्यात्व
सद्देव, सद्गुरु व सद्धर्म का यथार्थ स्वरूप न जानने से कुदेवादि का श्रद्धान मिथ्यात्व है। जीव-अजीव आदि तत्त्वों का सम्यक् स्वरूप न जानकर उनमें अन्यथा, विपरीत श्रद्धा करना मिथ्यात्व है। बन्धन व मोक्ष के स्वरूप को, इनके कारणों को यथार्थ न समझकर विपरीत मान्यता करना मिथ्यात्व है।
स्व-पर का अथवा जड चैतन्य का यथार्थ स्वरूप न जानकर विपरीत श्रद्धान करना मिथ्यात्व है।
मूल में स्व के प्रति बेभान रहना ही मिथ्यात्व है। अतः यह सभी आश्रव के कारणों में प्रथम व अनंत संसार बढाने का कारण है। यही मुख्य परिग्रह है। २. क्रोध
यह एक मानसिक किन्तु संवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था है। इसकी निम्न अवस्थाएँ हैं - कोप-क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता। रोष-क्रोधादि का परिस्फुट रूप। दोष-स्वयं पर या 'पर' पर दोष थोपना। अक्षमा-अपराध को क्षमा न करना-उग्रता। संज्वलन-बार-बार जलना, तिलमिलना। कलह-जोर जोर से बोलकर अनुचित भाषण करना। चाण्डिक्य- रौद्र रूप धारण करना। भंडण