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जैन आगमों में अपरिग्रह
नीतू बाफना श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने 'दशवैकालिक सूत्र' अ. ६, गा. ११ में प्ररूपणा की है कि 'सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं न मरिजउं-सभी जीव जीना चाहते हैं न कि मरना। यहाँ कौन से जीवन की अपेक्षा है तो भगवान ने 'आचारांग सूत्र' १-श्रु, २-अ, ३-3 में फरमाया कि-'सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्ख पडिकूला'-समस्त प्राणी दुःख के प्रतिकूल सुख की अभिलाषा करते हैं। उस सुखमय जीवन हेतु मनुष्य प्रायः मनोनुकूल विषयों में निरन्तर गतिशील रहते हैं, परंतु उन विषयों में सुख अल्प और बहुधा दुःख ही प्रतिफलित होता है। ऐसा क्यों? क्या अपनाया हुआ मार्ग वास्तविक सुख का कारण न होकर, दुःख का मूलभूत हेतु है? इसका विश्लेषण करते हुए भगवान् ने तथ्य को प्रकट किया कि मनोवांछित विषय आश्रव रूप होने से दुःखजन्य है। इस आश्रव व उसके प्रतिपक्षी संवर का विशद् विवेचन दसवें अंग प्रश्न व्याकरण सूत्र में गुम्फित है। ___ आश्रव व संवर की परिभाषा ग्रंथकारों ने यह की है कि आश्रव 'आसमन्तात श्रवन्ति प्रविशन्ति कर्माणि येन सः आश्रव' अर्थात् जिन कारणों से आत्मा में कर्म चारों ओर से प्रविष्ट होते हैं वह आश्रव है। 'संव्रियन्ते निरूध्यन्ते कर्म कारणानि ये भावेन संवरः।' यानि आत्मा में जिन कारणों से प्रविष्ट होते हुए कर्म रुक जावें, वह संवर है। आश्रव नवीन क्रमों का प्रवाह, संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का यानि संसार क्षय करके अव्याबाध सुख की प्राप्ति।
हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह ये पाँच मुख्य आस्रव के भेद हैं और इनके विपरीत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच संवर हैं। सामान्यतया पाँचों ही संवर आत्मगुणों के वृद्धिकरण, उपयोगी, आनंददायक और अन्ततोगत्वा मोक्ष फल के दायक हैं, परंतु यहाँ अपरिग्रह का कथन करना इष्ट है। अतः इसका विवेचन किया जा रहा है। ___पाँचों संवरों में मूल भूमिका रूप अपरिग्रह है क्योंकि अपरिग्रह अहिंसा का पोषक है। लोभ बिना द्वेष नहीं होता और द्वेष ही हिंसा का जनक है। अतः फलित हुआ कि लोभ के अभाव में हिंसा नहीं पनपती। यानि हिंसा का नींव रूप सृजक लोभ ही हैं। लोभ या लालचवश मनुष्य धन के अर्जन, संग्रह, संरक्षण में झूठ बोलता है, चोरी करता है और परिग्रह के मद में व्यभिचार करने में भी नहीं हिचकता।
परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७-नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५