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'मूकमाटी' : सन्त काव्य की आधुनिक परम्परा
डॉ. प्रेमशंकर
आचार्य श्री विद्यासागर के व्यक्तित्व की कई दिशाएँ हैं जिससे आचार्यश्री की वैविध्य-भरी प्रतिभा का प्रमाण मिलता है। कर्नाटक में जन्मे आचार्यश्री का अवतरण कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं. २००३ को हुआ था । जैसे उनकी चेतना को आरम्भ से ही मन की निर्मलता का वरदान मिला जिसे किसी सन्त का प्रस्थानबिन्दु कहा जाता है । मन में सात्त्विक वृत्तियों के उदय से चेतना उत्तरोत्तर ऊर्ध्व धरातल प्राप्त करती है, नहीं तो माया बहुत भटकाती है। भाग्य से आचार्य विद्यासागर को आचार्य ज्ञानसागर जैसे आलोकपुरुष गुरु प्राप्त हुए, जिनके चरणों में बैठकर उन्होंने जीवनजगत् को जाना-समझा । पुस्तकें जानकारी दे सकती हैं, पर ज्ञान - आध्यात्मिक ज्ञान के लिए आलोकदाता गुरु के पास जाना ही होगा । आचार्य विद्यासागर की सतेज मेधा, निश्छल जिज्ञासा, अटूट समर्पण, अनवरत निष्ठा से उनके व्यक्तित्व को निरन्तर विकास मिला। उसने एक ऊर्ध्वमुखी यात्रा की, जिसे सामाजिक स्वीकृति मिली और वे वन्दनीय हुए । सन्त स्वभाव और कविता में कोई विसंगति नहीं है, बशर्ते लक्ष्य उच्चतर मानव मूल्यों के निष्पादन का हो। भारतीय सन्त काव्य परम्परा, जो सिद्ध-नाथ - सन्त-भक्त कवियों से होती हुई श्री गुरुनानक तक विद्यमान है, उसका मूल स्वर यही है कि मनुष्य देहवाद से ऊपर कैसे उठे। इस दृष्टि से सन्त काव्य श्रेष्ठतम मूल्य चिन्ता को लेकर अग्रसर हुआ और सन्तों ने एक साथ कई भूमिकाओं का निर्वाह किया । उन्होंने कथनी-करनी के द्वैत को पाटा और आचरण की शुद्धता पर बल दिया। सामाजिक, सांस्कृतिक रूपान्तरण में सन्त काव्य की भूमिका निर्णायक रही है। उन्होने सही नेतृत्व किया जिसे सर्वाधिक स्वीकृति मिली सामान्य जन में । आचार्य विद्यासागर ने अपनी कृतियों के माध्यम से सन्त काव्य की दीर्घ परम्परा को नया आधुनिक प्रस्थान दिया है और एक सचेत सांस्कृतिक नेतृत्व का दायित्व निभाया है। जब-जब मानव मूल्य स्खलित होंगे, ऐसे महापुरुषों की आवश्यकता होगी जो अपने प्रभावी व्यक्तित्व से समाज को नई दिशा देने का प्रयत्न करें और उनका जीवन स्वयं मूल्य चिन्ता का प्रतिमान हो । 'मूकमाटी' एक प्रकार से आचार्य विद्यासागर के समग्र व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है - अपने समय को नया विकल्प देने का प्रयत्न ।
महाकाव्यों के विषय में कहा जाता है कि सभ्यता-संस्कृति के एक निश्चित रूपाकार ग्रहण करने पर, कोई महाकवि अपनी विराट् प्रतिभा से, उस समय को कथा माध्यम से व्यक्त करने का यत्न करता है । इस दृष्टि से हमारे शीर्षस्थ महाकाव्य - रामायण और महाभारत दो संस्कृतियों के वाहक हैं। धीरे-धीरे महाकाव्यों की रचना का कार्य कठिन होता गया और आधुनिक युग में इसे एक अप्रासंगिक माध्यम घोषित कर दिया गया । यहाँ तक कि लूकाच ने आधुनिक उपन्यास को प्राचीन महाकाव्य का स्थानापन्न माना । महाकाव्यों की रचना की दिशा में प्रयत्न हुए, पर सम्भवत: पाठक में इसका धैर्य और साहस न था कि उनसे अन्तरंग साक्षात्कार कर सके। ऐसे में आचार्य विद्यासागर का साहसपूर्ण रचना-प्रयत्न है और वह आधुनिक समय में किसी सन्त कवि द्वारा ही सम्भव है । 'मूकमाटी' प्राचीन महाकाव्यों की आख्यान आश्रित परम्परा का आश्रय भी नहीं लेता, इसलिए यह कार्य और भी कठिन हो गया है।
'मूकमाटी' के चार खण्ड हैं- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ;' 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं;' 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' । इनमें चतुर्थ खण्ड, जो कि महाकाव्य का समापन अंश है, आकार में सबसे बड़ा है, अन्य की तुलना में लगभग दुगने आकार का । ये शीर्षक काव्य की चिन्तनशीलता के परिचायक हैं और वास्तव में महाकाव्यों की लम्बी परम्परा में एक नए प्रयोग के सूचक । प्रायः महाकाव्य कथानक का