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________________ मूकमाटी-मीमांसा ::7 अस्वीकार्य है । दूसरे में, जगत् का उपादान यदि जड़ प्रकृति को मान लिया जाय तो फिर चेतना के बिना वस्तु-निर्माता की योजना आदि की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है । तीसरी कल्पना में भी अनेक कठिनाइयाँ हैं। ईश्वर ही जगत् का कारण है : “ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे' इत्यादि वचन इसको सिद्ध करते हैं । सृष्टि पूर्व वह अपनी प्रकृति में शक्तिरूप से रहा करता है : “आनीय वातं स्वद्यया तदेकम् ।" वह अव्यक्त अवस्था है : “तम आसीत्तमसा गुण्यहमग्रे।" असल में हम भूल जाते हैं कि वह मायोपाधिक ईश्वर भी जड़, चेतन दोनों प्रकार से आविर्भूत हुआ है : “यो ब्रह्मणं विदधाति पूर्वं । यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ॥" प्रकृतिवाद की अनेक त्रुटियाँ हैं। पहली तो यह की मानसिक क्रियाएँ प्राकृतिक अर्थात् आधिभौतिक क्रियाओं, गतियों अथवा स्पन्दनों से नितान्त ही भिन्न हैं । चेतना को प्राकृतिक क्रियाकलाप का कार्य मात्र ही मानना समुचित नहीं । यदि चेतना की प्रकृति से उत्पत्ति मान ली जाए तो इसका अर्थ हुआ कि प्रकृति से किसी आप्रकृत वस्तु की उत्पत्ति हुई। फिर दोनों में कार्य-कारण सम्बन्ध भी नहीं कहा जा सकता है । सृष्टि के इतिहास में चेतना के पैदा होने और नष्ट होने के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि इन महत्त्वपूर्ण घटनाओं का ज्ञान भी चेतना द्वारा ही हो सकता है। चेतना की अपनी उत्पत्ति एवं नाश का ज्ञान भी चेतना द्वारा ही हो सकता है। मुझे लगता है कि आचार्य विद्यासागरजी यदि आस्तिक जीवन मूल्य को मानते हैं तो ईश्वर की सत्ता को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करें। सापेक्षतावाद व्यावहारिक स्तर पर सही है । उसी प्रकार उपादानवाद भी कुछ ही दूर तक उपयोगी है । अच्छा होता यदि आचार्यप्रवर दार्शनिक ग्रन्थ का ही निरूपण करते, क्योंकि काव्य की कोमलता एवं दर्शन की शुष्कता दोनों में खतरनाक सम्बन्ध होता है। पृष्ट १०० हमें अपने शील स्वभाष से/--... दाग नहीं लगा यातीं वह
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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