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मूकमाटी-मीमांसा :: 5
“अतीत के असीम काल-प्रवाह में/स्त्री-समाज द्वारा पृथ्वी पर प्रलय हुआ हो/सुना भी नहीं, देखा भी नहीं। ...अपने हों या पराये,/भूखे-प्यासे बच्चों को देख
माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता।” (पृ. २००-२०१) और फिर पुरुष व स्त्री दोनों को ही मानो एक साथ सम्बोधन करते हुए कहती है माटी :
0 "क्या सदय-हृदय भी आज/प्रलय का प्यासा बन गया ?
क्या तन-संरक्षण हेतु/धर्म ही बेचा जा रहा है ? क्या धन-संवर्धन हेतु/शर्म ही बेची जा रही है ?" (पृ. २०१) "स्त्री-जाति की कई विशेषताएँ हैं/जो आदर्श रूप हैं पुरुष के सम्मुख । ...प्रायः पुरुषों से बाध्य हो कर ही/कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को परन्तु/कुपथ-सुपथ की परख करने में/प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने।
इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका/शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें।” (पृ. २०१) - “मही यानी धरती/धृति-धारणी जननी के प्रति/अपूर्व आस्था जगाती है ।
और पुरुष को रास्ता बताती है/सही-सही गन्तव्य का
'महिला' कहलाती वह !" (पृ. २०१-२०२) इन तथा आगे के कई पृष्ठों में आचार्य विद्यासागर ने 'मूकमाटी' के मुख से समाज में नारी की स्थिति, उसका सहज स्वभाव और सरल, सदय प्रवृत्ति, पुरुष के समक्ष उसकी बाध्यता तथा नारी के स्त्री, नारी, महिला, अबला, कुमारी, सुता, दुहिता, मातृ एवं अंगना-इन विभिन्न नाम रूपों की सार्थक व्युत्पत्तियाँ और व्याख्याएँ काव्यभाषा में दी हैं, जिनसे कवि के हृदय में नारी विषयक महत् श्रद्धा, सम्मान और आदर भाव अभिव्यक्त होता है ।
सम्पूर्ण 'मूकमाटी' और उसके सभी पक्षों पर एक व्यक्ति एक छोटे-बड़े लेख में विचार कर सके व न्याय कर सके, ऐसा सम्भव नहीं है। 'मूकमाटी' महाकाव्य है और महाकाव्य के सभी शास्त्रीय लक्षण अथवा गुण उसमें विद्यमान हैं। उन सभी का निदर्शन मात्र भी पर्याप्त समय और विस्तार माँगता है। अत: मेरे जैसे सामान्य रंचमात्र रसग्राही पाठक के लिए वैसा प्रयत्न न करणीय है, न साध्य । अन्य मूर्धन्य आधुनिक काव्य समीक्षकों ने 'मूकमाटी' के रस, रीति, अलंकार व ध्वनि प्रभृत्ति काव्यगुणों पर अपने पृथक्-पृथक् लेखों में पर्याप्त चर्चा की है। उनमें मेरा प्रयास अनावश्यक और अनपेक्षित है । मैं अपना कथ्य यह कहकर पूर्ण करना चाहूँगा कि 'मूकमाटी' सन्त काव्य की अखण्ड भारतीय परम्परा में एक अभिनव महाकाव्य है और एक निरीह, नि:स्पृह, निष्काम, वीतराग दिगम्बर जैन सन्त की रचना होने पर भी, केवल निर्वेद, वैराग्य, संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता और माँगों की व्यर्थता ही उसका कथ्य नहीं है, अपितु जगत् और जीवन के सौन्दर्य तथा उसके विविध रूपों को भी उसके रचयिता ने अपने मुनिपद की गरिमा और मर्यादाओं के भीतर रहते हुए काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करके 'मूकमाटी' के महाकाव्यत्व का औचित्यपूर्वक निर्वाह किया है । इत्यलम्।