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2 :: मूकमाटी-मीमांसा में अडिग विश्वास और तन-मन की एकाग्रता उसकी पहली शर्त है और वही है उसका पहला कदम । अत: वे कहते हैं :
"पथ पर चलता है/सत्पथ-पथिक वह
मुड़कर नहीं देखता/तन से भी, मन से भी।" (पृ. ३) पर पथिक सत्य से असत्य को अलग करके पहचान न सके तो सत्य का सन्धान कैसे सम्भव है ? इसीलिए कहा :
"असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!" (पृ.९) फिर कहते हैं :
"आस्था के विषय को/आत्मसात् करना हो/उसे अनुभूत करना हो तो साधना/के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष ! पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है,/परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना
शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं!" (पृ. १०) और साथ ही यह भी कि :
"आस्था के बिना रास्ता नहीं।" (पृ. १०) क्योंकि सत्पथ के नि:संग, निर्मोही पथिक का वही तो एकमात्र ‘पाथेय' है। 'आस्था' नामक इस 'पाथेय' के बिना क्या कभी कुछ भी महान् घटित हुआ है, या हो सकता है इस धरती पर ?
___ सरल होने पर भी सत्य के पथ का पीड़ा रहित होना सम्भव नहीं और उस पीड़ा का अ-शेष हो जाना ही उसका नि:शेष (निरोध) हो जाना है। अत: कहते हैं : “पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है" (पृ. ३३)। “दर्द का हद से गुज़र जाना है, दवा हो जाना"- शायर की इस पंक्ति की यह कहानी चरितार्थ है । इसी सन्दर्भ में पश्चिमी सभ्यता और भारतीय संस्कृति की संक्षिप्त, सारगर्भित तुलना कवि की वाणी में परखिए :
"पश्चिमी सभ्यता/आक्रमण की निषेधिका नहीं है/अपितु आक्रमण-शीला गरीयसी है/...और/महामना जिस ओर अभिनिष्क्रमण कर गये/सब कुछ तज कर, वन गये/...उसी ओर उन्हीं की अनक्रम-निर्देशिका भारतीय संस्कति है
सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।" (पृ. १०२) वे बताना चाहते हैं:
"वेतन वाले वतन की ओर/कम ध्यान दे पाते हैं, और/चेतन वाले तन की ओर/कब ध्यान दे पाते हैं ? इसीलिये तो"/राजा का मरण वह/रण में हुआ करता है प्रजा का रक्षण करते हुए/और/महाराज का मरण वह वन में हुआ करता है/ध्वजा का रक्षण करते हुए, जिस ध्वजा की छाँव में/सारी धरती जीवित है।" (पृ. १२३)