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________________ 'मूकमाटी' : एक सन्त महाकाव्य डॉ. शिव प्रसाद कोष्टा 'काव्य प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट ने काव्य प्रयोजनों को स्पष्ट करते हुए लिखा है : “काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये । सद्य:परिनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।” काव्य की रचना यशःप्राप्ति, धनलाभ, व्यवहार ज्ञान, मानव के लिए अशिव, अमांगलिक, हितविरुद्ध कार्य-कारणों हेतुओं के क्षय, तत्काल दुःखमोक्ष अर्थात् सुख-शान्ति की अनुभूति और कान्ता के समान प्रिय उपदेश प्रदान के लिए होती है । मम्मट के इन काव्य प्रयोजनों की कसौटी दिगम्बर जैनाचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित 'मूकमाटी' महाकाव्य पर लगाकर देखें तो स्पष्टत: 'मूकमाटी' के निष्काम, नि:संग महाकवि ने यशलाभ, धनलाभ, व्यवहार ज्ञान एवं कान्ता के समान प्रिय उपदेश प्रदान करने के लिए इस महाकाव्य का प्रणयन नहीं किया । इसकी रचना में उनके दो प्रयोजन स्पष्ट दिखाई देते हैं-शिवेतर यानी अशिव अथवा अकल्याणकर का क्षय तथा सद्य: दु:ख-मुक्ति । तथापि इससे कवि को अनन्य यश:लाभ भी हुआ है । अध्यात्म के साथ-साथ व्यवहार ज्ञान इस कृति में पग-पग पर बिखरा पड़ा है। 'मूकमाटी' का प्रत्येक सुबुद्ध पाठक स्वयं इसकी साक्षी दे सकता है। कान्ता के समान प्रिय उपदेश न होने पर भी अध्यात्म के प्रखरवेत्ता की अन्तश्चेतना से प्रसूत होने तथा अविलम्ब, अविराम सुख शान्तिप्रद-सन्तपाक होने से वह अमृत के समान मधुर और प्रिय है, इसमें सन्देह नहीं। काव्यलक्षणों की दृष्टि से 'मूकमाटी' की समीक्षा में जाना इस लेखक का प्रयोजन नहीं है, क्योंकि वह साहित्य-शास्त्र का मर्मज्ञ नहीं है । सन्त के जीवन की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक श्वास, प्रत्येक विचार और प्रत्येक शब्द सब जीवों के शिवेतर क्षय, सब दुःख-मुक्ति के लिए होता है। इस दृष्टि से ही यह लेखक 'मूकमाटी' पर कुछ लिखने में प्रवृत्त हुआ है। "अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः” तथा “कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः"- ये दो उद्धरण भारतीय वाङमय में कवि के व्यक्तित्व और उसके स्थान व सम्मान की सुन्दर व्याख्या करते हैं। इन उद्धरणों के प्रकाश में दिगम्बर जैनाचार्य पूज्य विद्यासागरजी महाराज के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर विचार करते हैं तो ये शत-प्रतिशत सत्य और सटीक सिद्ध होता है तथा उनका 'मूकमाटी' महाकाव्य इसका जीवन्त और जाज्वल्यमान प्रमाण है। भारतीय परम्परा में “वक्तुः प्रामाण्यात् वचनप्रामाण्यम्" के अनुसार वक्ता को प्रामाण्य अथवा प्रामाणिकता ही उसके वचनों की प्रामाणिकता की कसौटी है। "परोपदेशे पाण्डित्यम" को इस भूमि में सम्मान प्राप्त नहीं हुआ। यह भूमि ऋतसाधनों की है और 'ऋत' का दर्शन ही इस संस्कृति का प्राण तथा आत्मसर्वस्व है । ‘कान्त' और यह जो 'ऋत' है वह यहाँ सत्य, धर्म, परमसत्, परमधर्म, परब्रह्म, परमयज्ञ तथा इस ब्रह्माण्ड में जो भी कुछ श्रेष्ठतम, प्राप्यतम व आराध्यतम है, उस सबका प्रतीक है । ऋत-दर्शन की इस पृष्ठभूमि में आचार्यश्री की 'मूकमाटी' नामक यह काव्यकृति 'ऋत' के ही विविध पक्षों की अकृत्रिम अभिव्यक्ति है और वे स्वयं इसके वक्ता । आचार्यश्री के आभ्यन्तर व बाह्य और बाह्य व आभ्यन्तर जीवन की शुद्धता, पवित्रता, तन्मयता, काय-वाक् -मनोकर्म की एकता व अभिन्नता के कारण वे ऋतवाक् हैं और ऋतद्रष्टा भी; ऋतगामी हैं और ऋतदर्शक भी; ऋतज्ञ भी हैं और ऋतद भी; ऋतसाधक भी हैं और स्वयं ऋतमय भी । सत्य उनकी वाणी है और सत्य है उनका दर्शन । सत्य ही उनका मार्ग है और वही है उनका गन्तव्य । ऐसे आचार्यश्री द्वारा रचित 'मूकमाटी' जीवन के और जगत् के नाना सत्यों का ऐसा ही ऋतपरक निदर्शन है । अत: मैंने निश्चय किया है कि अपनी ओर से कुछ न कहकर क्यों न मैं उन्हीं के शब्दों में 'मूकमाटी' पर कुछ कहूँ, क्योंकि जो सत्य, सरल (ऋजु) और स्वाभाविक है उसे चाहे जितनी बार क्यों न दोहराया जाय, उससे उसकी रसवत्ता कम नहीं होती अपितु उस सत्य के स्वयंवेदन के साथ-साथ निरन्तर और अधिक बढ़ती जाती है। सृजन के पथ पर 'मूकमाटी' की यात्रा पथिक के रूप में ही आरम्भ होती है । गन्तव्य की प्राप्यता, आत्मशक्ति
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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