SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: lxxi रही है और पंखुरियों की ओट में अपनी सराग मुद्रा को छिपा रही है, वहीं दूसरी ओर अधखुली कमलिनी भी परपुरुष चाँद की चाँदनी तक का स्पर्श करना अनुचित समझती है, इसीलिए अपनी आँखें बन्द कर रही है । कवि इस निमीलन में कारण बता रहा है कि ईर्ष्या जो न करा दे, और वह भी स्त्री-पर्याय में तो उसकी सक्रियता और बढ़ जाती है। इस समग्र उक्ति से जो सौन्दर्य उभरता है उसमें समासोक्ति और अर्थान्तरन्यास की संसृष्टि कार्य कर रही है। यहाँ सामान्य से विशेष का समर्थन भी है । एक अगला बिम्ब लें । चन्द्रमा अस्त हो रहा है, तारिकाएँ आसमान से एक-एक करके हट रही हैं। इस पर कवि की कल्पना यह है कि जब तारापति हट रहा है तो छाया की भाँति अनुगमन करने वाली उसकी पत्नियाँ भी पीछे-पीछे इस भय से भागी चली जा रही हैं कि कहीं परपुरुष प्रभाकर अपने फैलते हुए हाथों से उन्हें छू न ले । इस उक्ति को एक कोण से देखें तो तारिकाओं के सहज लुप्त होने में अकारण की कारण रूप से परिकल्पना है, फलत: हेतृत्प्रेक्षा है तो दूसरी ओर से उसमें एक बिम्ब की परिकल्पना भी है । मानवीकरण तो है ही । इस प्रकार यहाँ भी एकाधिक अलंकारों की संसृष्टि कही जा सकती है। वर्णनात्मक स्थलों के काव्य सौन्दर्य की चर्चा पिछले पृष्ठों में भी की जा चुकी है । अत: उन स्थलों के काव्योचित सौन्दर्य स्रोतों की बानगी लेने के बाद सम्प्रति 'भावासिक्त प्रसंगों' को लिया जाय ओर देखा जाय कि उनमें आन्तरिक भावधारा की अभिव्यंजना कितनी शक्त और क्षम हो चुकी है। अनुभूति के गहरे एहसास में स्नातभाषा की दीप्ति देखनी हो तो घट की अन्तर्व्यथा की माँ के समक्ष की जाने वाली अभिव्यक्ति को देखें। उसके वर्ण-वर्ण वेदनासिक्त हैं। इसमें 'वैराग्य' या निर्वेद की तो व्यापक अभिव्यक्ति है ही, जिसमें नित्यानित्यत्व का 'विवेक' भी गर्भस्थ है । इस कर्मबन्ध से उत्पन्न दुःखराशि से मुक्त होने का औत्सुक्य' भी व्यंजित है । अभिप्राय यह कि अनेक संचारी भाव स्थायी निर्वेद की क्रोड में उन्मज्जन-निमज्जन करते हुए भाषा को दीप्ति प्रदान करते हैं। द्वितीय खण्ड में जहाँ प्रसंगात् विभिन्न रसों की व्यंजना का प्रसंग आया है, वहाँ भी रसोचित पदशय्या और अनुरूप विभाव-अनुभाव का संयोजन भाषा के समुचित संयोजन में पर्याप्त प्रभावी बन पड़ा है । भयानक और बीभत्स के बोलते चित्र देखे जा सकते हैं : "इतना बड़ा गुफा-सम/महासत्ता का महाभयानक/मुख खुला है जिसकी दाढ़-जबाड़ में/सिंदूरी आँखों वाला भय/बार-बार घूर रहा है बाहर, जिसके मुख से अध-निकली लोहित रसना/लटक रही है और/जिससे टपक रही है लार/लाल-लाल लहू की बूंदें-सी।” (पृ. १३६) इसी प्रकार मूर्तिमान् बीभत्स का चित्र देखें : "नासा बहने लगी प्रकृति की।/कुछ गाढ़ा, कुछ पतला कुछ हरा, पीला मिला-/मल निकला, देखते ही हो घृणा!" (पृ. १४७) ऐसी काव्योचित चित्रभाषा इन प्रसंगों में विद्यमान है। कहीं-कहीं स्थिति-विशेष का चित्र भावविह्वल होकर ऐसा सहज और आलंकारिक उद्भावनाओं से उफन पड़ा है कि रचयिता की कल्पना-शक्ति की दाद देनी पड़ती है। प्रसंग है चौथे खण्ड का । सेठ समागत समादृत सत्पात्र गुरु के समक्ष अपनी व्याकलता भरी जिज्ञासाएँ रखता है और उनकी ओर से समाधान मिलता जाता है. इस तरह : “सेठ की शंकायें उत्तर पातीं/फिर भी..." (पृ. ३४९) जिस मुद्रा में सेठ घर की ओर जा रहा है, उसका वर्णन उपमाओं के 'अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य' अविरल प्रवाह में पढ़ते बनता है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy