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उद्भावना
अपने स्थापनाकाल से ही ज्ञानपीठ भारतीय चिन्तनधारा के विविध आयामी पक्षों को केन्द्रित कर लिखे जा रहे समग्र समकालीन साहित्य की कालजयी रचनाओं को प्रबुद्ध पाठकों तक ले जाने की अग्रणी भूमिका निभाता आ रहा है। यह सब इसलिए कि इससे हिन्दी भाषाभाषी पाठक तो लाभान्वित होंगे ही, इसके माध्यम से विभिन्न भारतीय भाषाओं के रचनाकारों एवं सजग पाठकों के बीच तादात्म्य भी स्थापित हो सके, परस्पर वैचारिक प्रतिक्रिया और आदान-प्रदान हो सके।
इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि श्रमण संस्कृति के उन्नायक आचार्य श्री विद्यासागर जी ने धर्म, दर्शन और अध्यात्म के सार को आधार बनाकर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सम-सामयिक समस्याओं के निवारण की मंगल भावना से हिन्दी में 'मूकमाटी' महाकाव्य का सृजन किया था। भारतीय ज्ञानपीठ ने बड़ी तत्परता से इस गौरवग्रन्थ का प्रथम संस्करण 1988 में प्रकाशित कर इसे बृहत् पाठक समुदाय तक पहुँचाने का कार्य किया था। यह कृति इतनी लोकप्रिय कि सन् 2006 तक इसकी आठ आवृत्तियाँ हो चुकी हैं। इसी ग्रन्थ का मराठी अनुवाद 'मूकमाती' भी ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। इसके अँग्रेजी, बांग्ला और कन्नड़ अनुवाद भी मुद्रण की प्रक्रिया में हैं।
आतंकवाद, आरक्षण वं दलित समस्याओं के समाधान तथा दहेजप्रथा, अर्थलिप्सा जैसी सामाजिक कुरीतियों का निर्मूलन एवं व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया का निर्धारण इस रचना का मूलभूत प्रयोजन माना जा सकता है। विशेषता यह है कि इसके लेखन में तपोनिधि का सन्त-स्वभाव क्रियाशील रहा है।
यह जानकर हम सभी को सुखद आश्चर्य होगा कि इसके व्यापक प्रचार-प्रसार एवं विषयगत भावों के सहज सम्प्रेषण होने के फलस्वरूप देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के अन्तर्गत आचार्य श्री विद्यासागर जी के विपुल वाङ्मय सम्बन्धी 41 शोधकार्यों में से 'मूकमाटी' पर अब तक 4 डी.लिट्., 22 पी-एच. डी., 7 एम. फिल. के शोध-प्रबन्ध तथा 2 एम. एड. और 6 एम.ए. के लघु शोध-प्रबन्ध लिखे जा चुके / रहे हैं
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इस कालजयी कृति पर अब तक जिन विख्यात समीक्षकों ने कृतिकार की मान्यताओं एवं काव्य के वैशिष्ट्य का अपने वैचारिक आलोक में जिस तरह आलोडन - विलोडन किया है और इसे आधुनिक भारतीय साहित्य की, विशेषरूप से हिन्दी काव्य - साहित्य की, अपूर्व उपलब्धि माना है, उस प्रभूत सम्पदा को भी पाठक तक प्रेषित करने का हमारा कर्तव्य बन जाता है।
हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार तथा साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली के पूर्व सचिव डॉ. प्रभाकर माचवे के प्रधान सम्पादकत्व में सम्पूर्ण भारत के लगभग 300 समालोचकों ने 'मूकमाटी' के विभिन्न पक्षों पर अपनी कलम चलायी थी। उनके आकस्मिक देहावसान के कारण, बाद में प्रस्तुत ग्रन्थ 'मूकमाटीमीमांसा' के पृथक्-पृथक् तीन खंडों वाले इस समीक्षा ग्रन्थ का कुशल सम्पादन विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन