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482 :: मूकमाटी-मीमांसा
को अनेक बार पढ़ा है।
___ महाकाव्य में सुभाषितों का खुलकर प्रयोग हुआ है । वे जीवन की वास्तविकता को उजागर करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त आचार्यश्री ने विलोम शब्दों के अर्थों पर भी विशेष प्रकाश डाला है । उससे यह महाकाव्य के साथ-साथ कोशग्रन्थ भी बन गया है।
हिन्दी साहित्य को ऐसा अपूर्व महाकाव्य देने के लिए सारा देश, एवं विशेषत: हिन्दी भाषा-भाषी करोड़ों जन आचार्यश्री के सैकड़ों वर्षों तक कृतज्ञ रहेंगे। आचार्यश्री इसी तरह काव्य सृजन करते रहें, इसी मंगल भावना के साथ निम्न पंक्तियों पूर्वक हम उनका शत-शत अभिनन्दन करते हैं।
'मूकमाटी' का मूक सन्देश जिस माटी पर विश्व धरा है, उस माटी का घट बन जाता, कुम्भकार की स्वयं कल्पना, मंगल कलश स्वयं बन जाता। किसी द्रव्य को कौन बनाता, यह परिवर्तन स्वयं द्रव्य का; उपादान तो स्वयं द्रव्य है, कुम्भकार नैमित्तिक घट का॥
परिवर्तन करती है माटी, कुट-पिट करके कुम्भकार से, सँधकर सँधकर बन जाती घट, कलाकार या कुम्भकार से। परिवर्तन उसमें ही उसका, सब निमित्त बाहर ही रहते;
कुटती-पिटती-घुटती माटी, अपने रूप स्वयं में रहती॥ कुम्भकार या कलाकार की, कला स्वयं नहीं घट जाती, मंगल कलश रूप बन जाती, तप से तप कर ही बन जाती। 'मूकमाटी' को महाकाव्य या खण्ड काव्य के रूपक जो हैं; अपनी ज्ञान कल्पना से ही, मंगल कलश स्वयं में वो हैं।
आत्म-ज्योति की दीपशिखा को, आगम पथ पर मढ़ लेते हैं, मूकमाटी की मूक व्यथा को, अन्तर तम में गढ़ लेते हैं। सात तत्त्व के सही रूप को, प्रतिपल जो जीवन में गढ़ते;
वही मूकमाटी को घट में, मंगल कलश रूप दे मढ़ते ।। यूँ ही पुण्य-पाप परिभाषा, निरत साधना में लाते हैं, ऊपर उठकर स्वयं साधना-पथ संयममय धर जाते हैं। संवर द्वारा आस्रव रुकता, पथ आगे ही तपता रहता; तपा-तपाकर स्वयं निर्जरा द्वारा पथ नित बनता रहता।
साधक साधना पथ पर चलकर, साध्य रूप में ढलता रहता, इसी तरह यह महाकाव्य या खण्डकाव्य नित तन में गढ़ता। मंगल कलश, कामना मंगल, मंगलमय जीवन को मढ़ता; मूकमाटी की मूक व्यथा को, महाकाव्य में हरदम गढ़ता ।।