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480 :: मूकमाटी-मीमांसा
ऐसी तामसता भरी धारणा है तुम्हारी ?/फिर भला बता दो हमें आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी/सबसे आगे मैं/समाज बाद में।"
(पृ.४६०-४६१) सम्पूर्ण मानव इसी दुःखरूपी सरिता में धारा के समान बहता जा रहा है, भोग का ही लक्ष्य लिए। फिर दुःखी और म्लान-मुख हृदय का अंकन एक सजग कवि की सूक्ष्म आँखों से कैसे नज़र-अंदाज़ हो सकता था। कवि ने कहा है:
_ "सब के मुखों पर/जिजीविषा बिखरी पड़ी है,
सब के सब विवश हो/बहाव में बहे जा रहे हैं।" (पृ. ४५०) मानव-जगत् की मनोवैज्ञानिक रूप में सूक्ष्म-समस्या भी कवि की नज़र से ओझल नहीं हुई है। विशेष बात यह है कि समस्या का समाधान तो मानव के पास ही है । आचार्यश्री ने संकेत दिया है :
पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा
निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा । (पृ. ९३) __ अंधाधुन्ध धन-संकलन की प्रवृत्ति ने मानव को अपने मूल रूप से च्युत कर दिया है। धर्म की आड़ में पाप पनप रहे हैं। कहीं नीतिगत पथ दिखता नहीं है । उलझन और विनाश के काले बादल मण्डरा रहे हैं । आचार्य विद्यासागरजी ने समस्त चराचर में उस विनाश को रोकने हेतु मूक प्रार्थना की है, जो उनकी विश्व बन्धुत्व की भावना का द्योतक है :
“यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय
छा जावे सुख-छाँव/सबके सब टलें-/अमंगल-भाव ।" (पृ. ४७८) ___ कवि तो प्रार्थना ही कर सकता है। सारे दुःखों की जड़ अहम् ही है। इसके रहते व्यक्ति को किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती । लक्ष्य की प्राप्ति समर्पण, श्रद्धा, दया आदि के स्वीकारने और अहम् के विसर्जन से ही हो सकती है। आचार्य विद्यासागरजी ने समर्पण की भावना का बड़ा ही हृदयग्राही चित्र अंकित किया है : .
"मेरे रोने से यदि/तुम्हारा मुख खिलता हो/सुख मिलता हो तुम्हें
लो ! मैं रो रही हूँ"/और रो सकती हूँ।" (पृ. १५०) साधना करना अर्थात् उद्देश्य प्राप्ति के लिए मार्ग चुनना, मार्ग पर चलना आसान काम नहीं है। जो प्राथमिक बाधाओं को अभिशाप न मान वरन् वरदान मानते हैं, वे ही आगे बढ़ जाते हैं। जिस तरह कुशल लेखक को नई निबवाली लेखनी से शुरू में खुरदरेपन की अनुभूति से गुज़रना पड़ता है, परन्तु लिखते-लिखते निब घिसती जाती है
और फिर तो वह विचारों की अनुचरा, सहचरा होती हुई अन्त में जल में तैरती-सी संवेदन करती है। उसी प्रकार 'साधना' की भी यही स्थिति होती है। साधना के इसी रूप को कवि ने विभिन्न आयामों में समर्पित किया है । वे स्वयं साधक हैं, साधना की उच्चतम ऊँचाइयों के प्रयोगधर्मी हैं। इसी साधना को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए उन्होंने कहा है कि आस्था के तारों पर साधक की अँगुलियाँ चलती हैं, फिर सार्थक जीवन में स्वरातीत सरगम झरती है। प्रथम तो साधना भार लगती है, फिर निरन्तर अभ्यास होने पर वह सहचरी हो मानव को उच्चतम सोपानों तक ले जाती है।
___ वास्तव में अपने बाह्य और अन्तर्दर्शन के कारण 'मूकमाटी' इस युग को चित्रित करती हुई, साथ ही समग्रता से साक्षात्कार कराती हुई, युग की प्रतिनिधि रचना है।