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468 :: मूकमाटी-मीमांसा
इतने के पश्चात् भी उसमें पराक्रम का अभाव है। पुत्री माटी माँ धरती के सम्मुख अपनी इसी वेदना का वर्णन करती है, जिससे पाठक का अन्तर्मन भी करुणा से आर्त हो उठता है किन्तु फिर भी माटी को अपने भीतर निहित गुणों एवं मूल्यों की अनुभूति है, वस्तुत: इसी कारण वह अधिक व्यथित एवं व्यग्र है । अत: वह अपनी अन्तर्मन की व्यथा-वेदना को माँ धरती के सम्मुख व्यक्त करती हुई उनसे अपने अस्तित्व सुरक्षा की माँग करती है, ठीक उसी प्रकार जैसे यदि कोई बालक योग्य होते हुए भी उपेक्षित किया जाए तो वह सीधे अपनी माँ के पास जाता है एवं उसके द्वारा अपनी योग्यता से सबको अवगत कराना चाहता है । इसके साथ ही माटी अपने लिए सरिता से उचित मार्गदर्शन की भी मांग करती है, क्योंकि सम्भवत: इसके अभाव के कारण ही वह अभी तक दुख-युक्ता रही हो।
माटी को अपने अस्तित्व की अभिलाषा अवश्य है किन्तु इसके लिए जब वह अपने अन्तर्मन को परखती है तो उसे स्वयं में अनेक दोष दिखलाई देते हैं, जिससे उसे अपनी लघुता का भान होता है । माटी द्वारा अपनी लघुता की इस अनुभूति को माँ सरिता महत्त्वपूर्ण मानती हुई प्रसन्न होती है एवं इसकी तुलना उस साधक से करती है जिसने 'गुरुतम' को पहचान लिया है :
“तूने जो/अपने आपको/पतित जाना है/लघु-तम माना है यह अपूर्व घटना/इसलिए है कि/तूने/निश्चित-रूप से
प्रभु को,/गुरु-तम को/पहचाना है !" (पृ. ९) इसके पश्चात् माटी के परिशोधन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। परिशोधन की प्रक्रिया उसमें मिले हुए कंकरपत्थरों को पृथक् करने के साथ प्रारम्भ होती है। इसे कवि ने काव्य के प्रथम खण्ड अर्थात् ‘संकर नहीं : वर्ण-लाभ' के अन्तर्गत वर्णित किया है । यहाँ पर कवि का ध्येय माटी के प्रकारान्तर से मानव के परिशोधन की प्रक्रिया को अभिव्यक्त करना भी रहा है । वस्तुत: मानव को उच्च एवं महिमायुक्त होने के लिए आवश्यक है कि वह अपने अन्तर्मन में निहित दोषों को पहचान कर उनका निवारण करे, क्योंकि जब तक वे उसके अन्तर्मन में अपना निवास बनाए रखेंगे तब तक मानव के व्यक्तित्व का परिष्कार सम्भव नहीं है । वे दीर्घकाल तक उसके भीतर निहित रहने के पश्चात् भी उसके गुणों के साथ मिल कर तदनुकूल नहीं हो सकते । अत: यही उचित है कि उनको हटा कर 'वर्ण-लाभ' किया जाए :
"अरे कंकरो!/ माटी से मिलन तो हुआ/पर। माटी में मिले नहीं तुम !/माटी से छुवन तो हुआ पर/माटी में घुले नहीं तुम !/इतना ही नहीं,/चलती चक्की में डालकर
तुम्हें पीसने पर भी/अपने गुण-धर्म/भूलते नहीं तुम !" (पृ. ४९) इसी प्रकार द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सोशोध नहीं' में भी मानव के शब्द ज्ञान, उससे उत्पन्न बोध तथा बोध के परिणामस्वरूप मानव द्वारा अपने अन्तर्मन का परिशोधन भी कवि का लक्ष्य रहा है, जिसे सहज ही देखा जा सकता है । मानव के परिशोधन की यह प्रक्रिया माटी की विकास कथा के साथ-साथ ही आगे बढ़ती हुई महाकाव्य के तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तक पहुँच जाती है । इस खण्ड के अन्तर्गत कवि कहता है कि सत्कर्मों का परिणाम भी सत् ही होता है । यदि अन्तर्मन विभिन्न प्रकार के परिग्रहों, कषायों का त्याग करके किसी कार्य का प्रारम्भ करता है तो ऐसे कार्य का परिणाम भी निश्चित रूप से शुभ होता है।
अन्तिम चतुर्थ खण्ड में माटी का अभिनव रूप और अधिक मुखर हो उठा है । इस खण्ड में रचयिता ने युगों-युगों