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मूकमाटी-मीमांसा :: 453
कुछ ही क्षणों में/दोनों होते/विकल्पों से मुक्त । फिर क्या कहना !/एक शव के समान/निरा पड़ा है,
और एक/शिव के समान/खरा उतरा है।" (पृ. २८६) इस प्रकार 'मूकमाटी' कथावस्तु में आध्यात्मिक आयामों, दर्शन और चिन्तन के प्रेरणादायक स्फुरणों का गरिमामय समावेश है । 'मूकमाटी' की नायिका माटी है जिसकी वेदना-व्यथा तीव्रता और मार्मिकता से अनुप्राणित करुणा के रूप में अभिव्यंजित है । माँ-बेटी के पारस्परिक संवाद मन्दाकिनी की धवलधारा के सदृश अभिनव मोड़ लेते, बलखाते, इठलाते हैं। इसी प्रवहमान स्थिति में आचार्यश्री की दार्शनिक चिन्तन-चारुता सहज-स्वाभाविकता के साथ समाविष्ट होती चलती है। 'मूकमाटी' का नायक 'कुम्भकार' को स्वीकारा जा सकता है। जन्म-जन्मान्तर से यह माटी प्रतीक्षारत रही 'कुम्भकार' की । ऋषि-कवि का मानना है कि यह कुम्भकार माटी का उद्धार करके अव्यक्त सत्ता में से घट की मंगल मूर्ति प्रतिभाषित करेगा। मंगल घट की सार्थकता गुरु के पाद-प्रक्षालन में है जो काव्य के पात्र, भक्त सेठ की श्रद्धा के आधारभूत हैं । ऋषि-कवि कहते हैं : “शरण, चरण हैं आपके,/तारण-तरण जहाज,/भव-दधि तट तक ले चलो/करुणाकर गुरुराज !"(पृ. ३२५)। वस्तुत: काव्य के नायक तो यही गुरु हैं किन्तु स्वयं गुरु के आराध्यनायक अर्हन्तदेव' हैं, यथा :
"जो मोह से मुक्त हो जीते हैं/राग-रोष से रीते हैं जनम-मरण-जरा जीर्णता/जिन्हें छू नहीं सकते अब ...सप्त-भयों से मुक्त, अभय-निधान वे,/निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं ...शोक से शून्य, सदा अशोक हैं/...जिनके पास संग है न संघ,/जो एकाकी हैं
...सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं,/अष्टादश दोषों से दूर।" (पृ. ३२६-३२७) - शब्दों के शंख बजाने वाले आचार्य श्री विद्यासागर की भाषा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, रसमयी, प्रवाहशील और जीवन्त है। मुहावरों और कहावतों के प्रयोग से वह सार्थक हो गई है । शैली भी चित्ताकर्षक है और आलंकारिक भी। मनीषी पाठक बरबस आकृष्ट हो जाता है । इसमें भाव-भाषा की तो सहजता है ही लेकिन मुक्तक छन्दों का सुनियोजन कृति की विशेषता का अभिवर्द्धन-अभिसिंचन करता है । आचार्यश्री की प्रतिभा-प्रज्ञा को, चारु चिन्तन को, उनकी कलमश्री को नमन करने का मन होता है । 'मूकमाटी' आचार्यश्री की अनुभूति की प्रामाणिकता नवीनता की प्रतिष्ठा का अस्त्र है। वस्तुत: वह आध्यात्मिक उत्कर्ष का रसकलश है। आचार्यश्री का कवित्व-निर्झर सौन्दर्य की चट्टान से टकराकर प्रवाहित हुआ है जो बहिर्मुखी होकर मानव कल्याण साधन में तथा अन्तर्मुखी होकर हमारी भारतीय संस्कृति की सम्पत्ति स्वरूपा भक्ति के रूप में प्रकट होता है । आचार्यश्री का सारस्वत रूप इस अक्षरमाला में सुरक्षित है । मैं कामना करता हूँ कि साहित्य के सुधी चिन्तक इस अक्षरमाला में रुचि लें, इसका सम्यक् मान बढ़ाएँ और सारस्वत प्रतिष्ठा से इसे अलंकृत करें।
शुभम् !!