SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 452 :: मूकमाटी-मीमांसा कंकर उसमें आ मिले हैं, वह अपना मौलिक वर्णलाभ तभी प्राप्त करेगी जब वह मृदु माटी के रूप में अपनी शुद्ध अवस्था प्राप्त कर सके, यथा : 0 "मृदु माटी से/लघु जाति से/मेरा यह शिल्प/निखरता है/और खर-काठी से/गुरु जाति से/वह अविलम्ब/बिखरता है।" (पृ. ४५) ० "नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है। और क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है इससे यही फलित हुआ,/अलं विस्तरेण !" (पृ. ४९) 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' नामक द्वितीय खण्ड में माटी को खोदने की प्रक्रिया में कुम्भकार की असावधानी से उसकी कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है और उसका सिर फूट पड़ता है। वह प्रतिकार की सोचता है और कुम्भकार को अपनी असावधानी पर ग्लानि होती है । ऋषि-कवि का मानना है कि क्रोध-प्रतिशोध के भाव, बोध-भाव में परिणित हो जाते हैं जब बोध का फूल फल बन जाता है तब वह शोध कहलाता है, यथा : "बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो ) शोध कहलाता है।/बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से/तृप्ति का अनुभव होता है।" (पृ. १०७) आशय यह है कि उच्चारण मात्र 'शब्द' है। शब्द का सम्यक् अभिप्रेत समझना ‘बोध' है और इस बोध को चारित्र में ढालना 'शोध' है । आचार्यश्री स्वीकारते हैं कि प्रेम-क्षेम स्वभाव के अभिन्न अंग हैं। यदि पुरुष प्रकृति से दूर होगा तो निश्चय ही विकृतियुक्त होगा । पुरुष का प्रकृति में ही रमना तो मोक्ष है : "स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में हो/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।" (पृ. ९३) 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' शीर्षक से तृतीय खण्ड में कुम्भकार ने माटी की विकास यात्रा के माध्यम से पुण्य कर्म के सम्पादन से अनुस्यूत श्रेय और प्रेय उपलब्धि का चित्रण किया है। अबला, नारी, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता आदि शब्दों की व्याख्या (पृष्ठ २०१-२०७) अपने ढंग की हुई है। त्रिगुप्ति- मन-वचन-काय- की निर्मलता से, शुभ कर्मों के सम्पादन से, लोककल्याण की कामना से पुण्य उपार्जित होता है । कषाय से तो पाप पुष्पित-फलित होता है। चतुर्थ खण्ड अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में प्रबन्धकाव्य का नायक कुम्भकार ने घट को रूपाकार दे दिया है। अब उसे अवा में तपाने की तैयारी है । पूरी प्रक्रिया काव्यबद्ध है । चतुर्थ खण्ड का फलक विस्तृत है । अनेक कथा प्रसंग रोचकता का श्रीवर्धन करते हैं। मानव के दो रूपों- एक शव और दूसरा शिव - का प्रतिनिधित्व चित्रण करते हुए ऋषिकवि कहते हैं: "इस युग के/दो मानव/अपने आप को/खोना चाहते हैंएक/भोग-राग को/मद्य-पान को/चुनता है; और एक/योग-त्याग को/आत्म-ध्यान को/घुनता है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy