SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 536
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 450 :: मूकमाटी-मीमांसा सब के वश की बात नहीं,/और "वह भी"/स्त्री-पर्याय में अनहोनी-सी घटना!" (पृ. २) यहाँ पर कवि ने ईर्ष्या का सामंजस्य बिठाया है कमलिनी और स्त्री में। "पदाभिलाषी बनकर/पर पर पद-पात न करूँ, उत्पात न करूं, कभी भी किसी जीवन को/पद-दलित नहीं करूं प्रभो!" (पृ. ११५) यह शिल्पी के रूप में रचनाकार की भावना है। “अब दर्शक को दर्शन होता है-/कुम्भ के मुख मण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का।/ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं।/'ही'एकान्तवाद का समर्थक है 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।” (पृ. १७२) अनेकान्त, स्याद्वाद -ये जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त हैं। 'ही' और 'भी' का प्रयोग देश-कल्याण के लिए रीढ़ है, जिसे अपनाने कवि की भावना है : ० "'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता। रावण था 'ही' का उपासक/राम के भीतर 'भी' बैठा था। यही कारण कि/राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी। 'भी' के आस-पास/बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य, किन्तु भीड़ नहीं,/'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है।" (पृ. १७३) "प्रभु से प्रार्थना है, कि/'हो' से हीन हो जगत् यह अभी हो या कभी भी हो/'भी' से भेंट सभी की हो।" (पृ. १७३) इस महाकाव्य में चार खण्ड हैं--१. 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ', २. 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, ३. 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' एवं ४. 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' ___ इन चार खण्डों में करीब ५०० पृष्ठों के इस महाकाव्य में आध्यात्मिक परम सन्त ने जो विचार दिए हैं, सचमुच वे सब हृदय को छूने वाले, अन्तस् को टटोल कर प्रेरणा देने वाले, छोटी-छोटी गद्य पंक्तिओं के रूप में एक-एक पद महान् अनुभूति के प्रदाता हैं तथा चिन्तन और मनन के योग्य हैं । वैराग्य, राग-द्वेष, कषाय, लेश्याएँ, देश-सेवा, स्याद्वाद, पुण्य-पाप आदि सभी मानव सम्बन्धी विषयों पर 'मूकमाटी' महाकाव्य में इन दार्शनिक महाकवि ने क़लम चलाई है, जो सभी के लिए प्रेरणा प्रदाता हैं। सहृदय पाठक इसे पढ़ना चालू कर देने के बाद छोड़ना नहीं चाहेगे । उन्हें अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा और उनका अन्तर्मन बोल उठेगा'यह मूक माटी नहीं, मुखर माटी है। 'मानस तरंग' में आचार्यश्री का प्रत्येक वाक्य मननीय है, स्वाध्याय योग्य है। इसके प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ तो धन्यवाद के पात्र हैं ही, साथ ही प्रस्तवन' लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन भी धन्यवादार्ह हैं, उनके साथ ही अन्य सहयोगी बन्धु भी।। [सम्पादक- 'वीर वाणी'(पाक्षिक), जयपुर-राजस्थान, ३ अक्टूबर, १९९०]
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy