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'मूकमाटी' : आध्यत्मिक जीवन की देन
पं. भँवर लाल जैन
आचार्य श्री विद्यासागरजी की यह एक अनूठी रचना है जिसने अनूठी सूझ के आधार पर ही एक महाकाव्य रूप ले लिया है । साधारण-सी वस्तु माटी, जिसका जनसाधारण की नज़रों में कोई महत्त्व नहीं, दार्शनिक कवि ने साधना के बल पर उसमें महानता के दर्शन किए और माटी की उस मूक महानता को काव्य में निबद्ध कर उसे पहुँचा दिया ऊपर, महाकाव्य के रूप तक। यह साधारण कार्य नहीं, एक अलौकिक प्रतिभा कहें, तपःपूत साधना कहें या कहें आध्यात्मिक जीवन की देन !
साहित्य, कला, दर्शन और सिद्धान्त सभी भरे हैं- इस 'मूकमाटी' में । प्रश्न उठता है कि क्या नहीं है 'मूकमाटी' में, जिसे 'मूकमाटी' के कलाकार ने छोड़ा हो ? कहीं तोड़ा मरोड़ा नहीं, स्वाभाविक रूप में जोड़ा हैं । इसकी भाषा प्रांजल और सरल है एवं भावों की अभिव्यक्ति में सक्षम है।
'कमाटी' काव्य स्वतःप्रसूत आलंकारिक छटा से ओत-प्रोत है । वीर, करुणा, वात्सल्य, शृंगार आदि सभी काव्यगत रसों की काव्य रूप में व्याख्या देते हुए कवि की अपूर्व प्रतिभा के दर्शन होते हैं :
" इस करुणा का स्वाद / किन शब्दों में कहूँ !
गर यक़ीन हो/ नमकीन आँसुओं का / स्वाद है वह !" (पृ. १५५ )
करुणा और शान्त रस के भेद बताते हुए 'मूकमाटी' में लिखा है :
" करुणा रस में / शान्त - रस का अन्तर्भाव मानना / बड़ी भूल है । उछलती हुई उपयोग की परिणति वह / करुणा है / नहर की भाँति ! और / उजली-सी उपयोग की परिणति वह / शान्त रस है / नदी की भाँति !” (पृ. १५५)
इसी प्रकार शृंगार रस का चित्रण करते हुए कवि माटी को बताता है :
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"बोरी में भरी जा रही है / बोरी के दोनों छोर बन्द हैं / बीचों-बीच मुख है और / सावरणा साभरणा / लज्जा का अनुभव करती, / नवविवाहिता तनूदरा घूँघट में से झाँकती-सी / बार - बार बस, / बोरी में से झाँक रही है । " (पृ. ३०-३१)
रस के बारे में कवि कहता है :
" महासत्ता माटी की बाहुओं से / फूट रहा वीर रस और/पूछ रहा है शिल्पी से वह / कि /... वीरों से स्तुत यह वीर रस प्रस्तुत है / सदियों से वीर्य प्रदान किया है, / युग को इसने !
लो! पी लो प्याला भर-भर कर / विजय की कामना पूर्ण हो तुम्हारी ! युग - वीर बनो ! महावीर बनो !” (पृ. १३०)
"अध- खुली कमलिनी / डूबते चाँद की / चाँदनी को भी नहीं देखती आँखें खोल कर // ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना