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अ-मूक 'मूकमाटी'
लालचन्द्र हरिश्चन्द्र जैन 'धर्म-मंगल' (पाक्षिक) में मैंने पहली बार 'मूकमाटी' काव्य के सम्बन्ध में पढ़ा । बाद में मूल ग्रन्थ देखने को मिला तो इसके मुखपृष्ठ को देखकर सहसा मैं स्वयं से ही पूछ उठा कि इसमें मंगल कलश है, चक्र है, पर्वत-सी माटी है फिर निर्मल बहती सरिता क्यों नहीं ? ग्रन्थ को खोलकर जब पढ़ने लगा तो उत्तर मिला- “भोले प्राणी ! काव्य सरिता यहाँ बह रही है, तो बाहर दीखे ही क्यों, जब वह अन्तर्निमग्ना है।"
यह काव्य चार खण्डों में विभक्त है । चौथे खण्ड का विस्तार अधिक है । क्या सचमुच यह महाकाव्य है अथवा खण्ड काव्य है या सन्त काव्य है ? मुझे तो गतिमान, रूक्ष वर्तमान युग में यह 'वसन्त काव्य' लगा। कुछ भी कहो, काव्य अच्छा है । काव्य अगर कला है, वह जीवन में सौन्दर्य बनकर अभिव्यक्त होती है तो 'मूकमाटी' दर्शनीय है । आचार्य विद्यासागर का चरित्र मैंने पढ़ा नहीं किन्तु भावात्मक परिचय देने के लिए 'मूकमाटी' 'अमूक' हो उठी । इसीलिए 'अमूक मूकमाटी' यह शीर्षक मैंने दिया।
___पहले सहसा मैं कल्पना कर रहा था कि कहीं ऐसा न हो 'गतानुगतिकता' का अनुभव शब्द रचना में भी हो। गतानुगतिकता आदर्श निर्मल परम्परा में होनी चाहिए। आज नए युग में वाचक अनुरंजन प्रिय है। "क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः" अर्थात् नवीनता प्रतिक्षण नवीन होती है तो वह रमणीयता का रूप धारण करती है, ऐसा 'शिशुपाल वध' काव्य में कहा है। 'मूकमाटी' के प्रत्येक खण्ड में रमणीयता है क्योंकि आचार्यजी जिन शब्दों की रचना करते हैं, वे काव्य बनकर साकार होते हैं । रमणीयता काव्य का अभिन्न अंग है । इस काव्य में काव्यानन्द तो है ही, उससे अधिक महत्त्व तो यह है कि इसमें आध्यात्मिक सदाचार वर्णित है । कोई कुछ भी कहे, जीवन का लक्ष्य चिरन्तन सौन्दर्य की उपलब्धि ही होना है। यह काव्य उसका प्रतिनिधित्व करता है । इसीलिए आचार्यश्री कहते हैं :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है।
इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है।” (पृ. ४८६) काव्य का मूल्यांकन मैं क्या करूँ ? निर्मल दिगम्बरी दीक्षाधारी प्रत्यक्ष 'विद्या-सागर' की रचना का मैं अल्पज्ञ संसारी जीव मूल्यांकन क्या करूँ ? मेरा तो कर्तव्य है कि काव्य रस का आकण्ठ पान करूँ।
आचार्य श्री विद्यासागर आध्यात्मिक सन्त हैं। इस काव्य में अध्यात्म धारा स्वाधीन भाव से बह रही है। पूरे अध्यात्म को यहाँ थोड़े शब्दों में उतारना तो हो नहीं सकता, फिर भी कुछ पंक्तियाँ वाचकों के सामने रखने का मोह मैं सँवार नहीं सकता।
सेठ को उपदेश देते हुए कहते हैं : "स्वाश्रित जीवन जिया करो" (पृ. ३८७)। ठीक ही है, उन्नति का आधार 'स्व' ही है। उसका आधार लेने पर जीवन आनन्द भवन है। उसके बिना भव-वन तो है ही।
उसके पूर्व ही कह डाला है : "स्वभाव समता से विमुख हुआ जीवन/अमरत्व की ओर नहीं/समरत्व की ओर, मरण की ओर, लुढ़क रहा है" (पृ. ३८१) । स्वभाव में जम जाना सार्थ जीवन है। विभाव में पड़े हैं, इसीलिए तो हम संसारी होकर दुःख भोग रहे हैं। आगे भी यही दुःख भोगना हमारा कर्तव्य नहीं है। “चेतना का जीवन ही/झलक आता है" (पृ. ३७) -इस विचार धारा को पाथेय बनाकर हम आनन्द के मार्ग पर चलें। “हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है"(पृ. ६४) उसका पालन हमें करना है तो “करुणा का केन्द्र वह/संवेदन धर्मा 'चेतन है"(पृ. ३९) इसको ध्यान में रखना है।