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मूकमाटी-मीमांसा :: 377
शिल्पी तो चेतन-पुरुष के चैतन्य का पक्षधर है, परन्तु जड़ प्रकृति की विकृति एवं संस्कृति परम्पराओं के प्रति भी निष्ठावान् है । पुरुष इसे परमार्थ का रूप निर्धारण करते हुए, ज्ञान में पदार्थों की झलक मानता है (पृ.१२४) । पुरुषार्थ का आधार गुणवत्ता को माना गया है । अत: 'सत्' की पहिचान- जो रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श से स्पन्दित एवं स्नात (पृ. १८६) है, चेतन पुरुष का जीवन लक्ष्य होती है (पृ. १२८)।
सम्पूर्ण प्राकृतिक व्यापार नियमित रूप से पुण्य का पालन एवं पाप का प्रक्षालन करते हैं । यद्यपि अर्थ की आँखें परमार्थ को नहीं देख पातीं, केवल स्वार्थ को ही देख पाती हैं परन्तु पुरुष को प्रतिमान न करते हुए सहनशील होना, न्याय-पथ से विचलित न होना आदि हित-सम्पत्-सम्पादिका बुद्धि से उसमें 'स्व' और 'पर' की सोच को उचित ठहराया गया है। स्त्री जाति में यद्यपि पाप भीरुता एवं पलता पाप रेखांकित किया गया है, तथापि गृह में अवस्थित उसे कुपथ या सुपथ पर चलने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता । इसीलिए वह अबला' होते हुए भी सर्वमंगला बनी रह सकी है (पृ. २०१-२०२)।
प्रकृति में जब विकृति आती है और वह संस्कृति, परिष्कार तथा संस्क्रियाओं का मार्ग छोड़ देती है, तब पुरुष का चैतन्य पाप पुंज बन जाता है, परमार्थ के अर्थ बदल जाते हैं, पुरुष और पुरुषार्थों में दोषारोपण होने लगते हैं, अधिकार और कर्त्तव्य में खींचातानी होने लगती है एवं गुणी पर प्रहार कर गुणों की इतिश्री समझ ली जाती है । इस प्रकार चेतन पुरुष की दयनीय स्थिति के साथ-साथ माटी भी उलटी-पुलटी जाती है (पृ. १२६-१२७) । ऐसी अवस्था में चेतन की अस्मिता की पहिचान, समता और समुचित बल के बलिदान में अपेक्षित समझी गई है । तब युगवीर बनकर चैतन्य वीर रस का सेवन करता है, जिससे उद्दण्डता एवं अतिरेक का जीवन में पदार्पण होता है । जब महासत्ता का महाभयानक मुख खुलता है, तब भय और महाभय ताण्डव करते हैं। अभय और निर्भय का आह्वान होता है, परन्तु पुरुष
और प्रकृति के संघर्ष में प्रकृति के स्वर का बोलबाला रहता है : “सन्तान की अवनति में/निग्रह का हाथ उठता है माँ का/और/सन्तान की उन्नति में/अनुग्रह का माथ उठता है माँ का” (पृ. १४८) । गुरु-शिष्य परम्पराओं में, महापुरुषों के सन्देश, द्वैत-अद्वैत में अन्तर प्रतिष्ठापन द्वारा समता और सन्तुलनों के फलक तलाशते हैं । सत्पात्र की गवेषणा होती है। श्रमण की अग्निशामक वृत्ति, विषय-विषयी में इन्द्रियजन्य वासनाओं के प्रशमन के लिए अग्रसर होती
मानवीय अवचेतन में अनादिकाल से सुप्त वासनाओं का निवास है । ये जब तक अविद्या, मिथ्या-दृष्टि या अभिनिवेश से रँगी रहती हैं, तब तक न तो सत्य का और न ही तथ्य का रूप-दर्शन हो सकता है । वस्तुत: संसार ही चित्त से संचित वासनाओं के विकल्पों से उद्भूत हुआ है । परन्तु बोध स्वसंवेद्य, अनेकान्त रहित है और निर्वाण निर्विशेष । “वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है" (पृ. ३८)। 'दया और करुणा वृत्तियाँ निरवधि हैं, परन्तु वासना की जीवन-परिधि अचेतन-तन है (पृ. ३९)।'
इसी प्रकार विज्ञान प्रतीत्य-समुत्पन्न कहा गया है । विज्ञान के अन्तर्गत परिणाम, विपाक, मनन और विषयविज्ञप्ति में निरूपण होता है जबकि विज्ञेय सांवृत्तिक तथा मिथ्या कहा गया है :
"सर्वं विज्ञेयं परिकल्पवतस्वभावत्वात् वस्तुनो न विद्यते
विज्ञानं पुन: प्रतीत्य समुत्पन्नत्वात् द्रव्यत: अस्ति इत्यभ्युपेयम् ।" अतः परिकल्पित स्वभाव ही बाह्य जगत् है, जिसमें सत्त्व या द्रव्य, गुण आदि का आरोप होता है । परतन्त्र स्वभाव तो क्षणिक एवं विज्ञानात्मक है।