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सन्त साहित्य की आध्यात्मिक साधना और 'मूकमाटी'
डॉ. कृष्णलाल शर्मा 'सूदन' 'मूकमाटी' कृति के खण्ड एक का शीर्षक है-'संकर नहीं : वर्ण-लाभ।' इस खण्ड में जीवन काल नैरन्तर्य दिवस-रात्रि के चरणों पर अनवरत चलता बताया गया है, जैसे 'जीवन सरिता सरपट सरक रही है।' यहाँ धरती माँ की लाड़ली बेटी माटी को तो साधनगत पद, पथ, पाथेय चाहिए। परन्तु धरती उसे साध्यगत शाश्वत मूल्यों या 'शाश्वतभास्वत-सत्ता' से परिचित कराती है, क्योंकि उसको 'लघुता का भाव हुआ है, उसने गुरुता को पहिचान लिया है।' यह कथन द्रष्टव्य है :
"असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!" (पृ.९) सत्य मार्ग पर चलने के लिए, 'आस्था के बिना रास्ता नहीं। इसलिए 'निरन्तर अभ्यास करना, आयास से डरना नहीं और आलस्य करना नहीं (पृ. १०-११)।
"फटा हुआ यह जीवन/जुड़ जाय बस, किसी तरह
शाश्वत-सत् से,/"सातत्य चित्त से।” (पृ. ८५) सत्युग में जीवन-दृष्टि सत्य-सन्धान में लगी थी, जबकि कलियुग में 'सत्' को भी 'असत्' मानने वाली दृष्टि का सूत्रपात होता है । अत: 'असत्' के भ्रमजाल से बचने के लिए बोध के माध्यम से शोध की प्रवृत्ति को प्रश्रय दिया गया है, क्योंकि वस्तुत: बोध ही परिपक्व होकर शोध कहलाता है। मनोनिग्रह पर बल देते हुए, मनोज को महादेव के आयुध शूल रूप स्मरण कराया गया है।
रस्सी का अविभाज्य जीवन उसमें पड़ी गाँठ के कारण विभाजित हो सकता है दो भागों में (पृ. ६२) । द्वन्द्वात्मकता की इन ग्रन्थियों को 'हिंसा की सम्पादिका' कहा गया है (पृ. ६४) ।
“एक की दृष्टि/व्यष्टि की ओर/भाग रही है,/एक की दृष्टि समष्टि की ओर/जाग रही है,/...एक का जीवन/मृतक-सा लगता है कान्ति-मुक्त शव है,/एक का जीवन/अमृत-सा लगता है कान्ति-युक्त शिव है ।/शव में आग लगाना होगा,/और
शिव में राग जगाना होगा।" (पृ. ८४) यहाँ समाधि को जीवन का चरम साध्य माना गया है । जहाँ सन्तुलनों और निर्द्वन्द्वों का बोध होता है वहाँ गुणात्मक विकास होता है।
"उपाधि की नहीं, माँ !/इसे समधी - समाधि मिले, बस!" (पृ. ८६) प्रस्तुत कृति के दूसरे खण्ड का शीर्षक है- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं।' लेखनी कहती है :
"बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है।/...फूल से नहीं,फल से/तृप्ति का अनुभव होता है।"
(पृ. १०७)