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'मूकमाटी': जीवन का अनुचिन्तन
रज्जन त्रिवेदी समग्र जीवन में मांगल्य की भावना ही सन्त को या काव्य को ऊपर उठाती है। जीवन की विकृति के परे सुकृति में जीने की दृष्टि हमारे यहाँ, भारतीय चिन्तन में सदा बनी रही है। विभिन्न मतों का यहाँ प्रवर्तन होता रहा विभिन्न माध्यमों से, लेकिन उसकी निष्पत्ति देखी जाय तो वह सुकृति का ही विधान जीवन के लिए आता रहा है । आचार्य विद्यासागरजी की इस रचना में इसी सुकृति की रचनात्मकता फलीभूत हो उठी है । उन्होंने माटी के प्रतीक को, जो कुछ नहीं है, किन्तु अपनी साधना और सद् विचार और सदाचरण से वह जो जीवन का एक एक घट निर्मित करता है, वह मंगल कलश ही होता है। माटी के शून्य से मंगल कलश की अवधारणा के बीच ही जीवन के उत्कर्ष और सम्बोधि की सम्भावना छिपी हुई है। आचार्यजी ने जहाँ एक ओर जैन दार्शनिक चिन्तन को इस काव्य कृति में प्रतीकात्मकता दी है, वहीं जीवन की सम्बोधि को, उसके हित वाले पहलू को भी उसी के साथ उजागर किया है। हित की सुरभि ही साहित्य का प्राण हुआ करती है। यह प्राणवत्ता ही किसी भी कुम्भकार के लिए जरूरी होती है। अगर वह उस सब का संवेद्य उभार न सका, प्रतिपादित न कर सका तो उसकी मांगल्य लोकाभिरुचि की भावना कुण्ठित हो जाएगी । आचार्यश्री ने इस लोकहित को उभारते हुए बड़े विश्वास से कहा है : “सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/...सुख का समुद्भव-सम्पादन हो/सही साहित्य वही है" (पृ. १११) । वस्तुत: रचनाकार की दृष्टि में शुरू से ही लोक मांगल्य जुड़ा हुआ है, जो जैन दर्शन की उपलब्धियों को आगे चरितार्थ करता चला गया है । उन्होंने कहा है :
"शिल्पी के शिल्पक-साँचे में/साहित्य शब्द ढलता-सा ! हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है/और
सहित का भाव हो/साहित्य बाना है ।" (पृ. ११०-१११) इस कृति को खण्ड काव्य, प्रतीक काव्य या महाकाव्य की परिधि से हटाकर, विचार की गम्भीरता के महत् उद्देश्य से रचे गए महादृष्टि वाले काव्य के समकक्ष रखा जा सकता है । कदाचित् इसलिए कि महाकाव्य भी जीवन की गहराइयों और अनुभूतियों का कालजयी बोध लेकर आता है । इस कृति में यह बोध उसी सीमा में अपने अस्तित्व को रेखांकित करता चला गया है। जीवन की समग्रता का अनुबन्ध इस कृति में जहाँ एक ओर सम्पृक्त है, वहीं दूसरी ओर चिन्तन की गहराइयों को प्रतीकों के माध्यम से कहने का सार्थक प्रयत्न भी किया गया है । माटी, कुम्भ और जल की बात आते ही कबीर की गरिमा मन को संस्पर्श देने लगती है, जहाँ उन्होंने अद्वैतवादी चिन्तन की इतनी सहज व्याख्या उसमें कर दी:
"जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ, जल जलहि समाना, यह तत कहो गियानी ॥" इसी के साथ "माटी कहै कुम्हार से तू क्या सँधै मोह" वाली पंक्तियों में कुम्भकार की झलक मिलने लगती है। और यहाँ :
" "कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।” (पृ. २८) शिल्पी का नाम जब कुम्भकार हुआ तो रचनाकार अपने शिल्प का प्रयोग कर विभिन्न उपादानों में उसके