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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xxxix साधक जीव का प्रतीक है। इसीलिए व्यास ने 'नरत्वं दुर्लभं लोके' कहा है। कवित्व के उच्छलन का स्रोत-प्रतीक पद्धति __ शान्त का स्थायी भाव शम या निर्वेद है जो समस्ततृष्णाक्षयसुखात्मा' है। वाच्य रूप में घट से व्यंजित प्रतीयमान तपोरत साधक ही उस शम नामक स्थायी भाव का आश्रय है। कंकर अजीव, कर्ममय पौद्गलिक परमाणुसंघात के प्रतीक हैं, जिनसे सम्पृक्त होकर जीव 'स्वभाव' को विस्मृत किए हुए है और विभावाभिमानी बनकर दुःख भोग रहा है। माँ धरती का होनहार पुत्र घट अपनी माँ से जो ‘श्रुत' सुनता है, आस्था की नासा से उसकी पूरी सुगन्धि लेता है, और तब खुला हुआ गन्तव्य का रास्ता ही उसका शास्ता बन जाता है, घट की पात्रता अपनी अदम्य अभीप्सा से आचार्य कुम्भकार को खींच लाती है, जो निमित्त बन जाता है उपादान की सम्भावनाओं को उपलब्धि बनाने में। तीसरे और चौथे खण्डों में वर्णित संघर्ष पर दृढ़ आस्था और विश्वास विजय पाती है । घट तो जीवन मुक्त होता ही है, आचार्य के प्रति आत्मदान करता हुआ, उससे जुड़ा हुआ सेठ परिवार भी दु:ख सरिता का सन्तरण कर जाता है। सभी अरिहन्त का साक्षात्कार कर लेते हैं । यह सब समस्त तृष्णा या काषायक्षय के बिना- घाति कर्मक्षय के बिना सम्भव नहीं है । यही समस्त तृष्णाक्षयसुखात्मा शम की शान्त में निष्पत्ति है । 'काव्यप्रकाश कार कहता है : “स्याद् वाचको लाक्षणिक: शब्दोऽत्र व्यंजकस्त्रिधा।” (२/५) अर्थात् व्यवहार और शास्त्र में शब्द वाचक और लाक्षणिक होते हैं, परन्तु 'अत्र' अर्थात् काव्य में 'व्यंजक' होते हैं । इस प्रकार व्यंजक या प्रतीक को माध्यम बनाकर वर्ण्य का उपगूहन कवित्व का प्रबल स्रोत है । भारतीय परम्परा में रहस्य के उपस्थापन की यही पद्धति है। कवित्व के इतने बड़े स्रोत के जागरूक होते हुए भी जिन्हें यहाँ कवित्व लक्षित नहीं होता, उनके विषय में क्या कहा जाय ? "नायं स्थाणोरपराध: यदेनमन्धो न पश्यति ।" 'लोचन' कार काव्य को ललितोचितसन्निवेशचारु' कहता है और पण्डितराज जगन्नाथ 'समुचितललितसन्निवेशचारु' कहते हैं । वही शब्दार्थसन्निवेश ललित और उचित है, फलत: 'चारु' है, काव्य है, जो रसानुरोधी है । लालित्य का आधान रसानुरोध से ही होता है और उसी के अनुरोध से औचित्य का निर्धारण भी होता है । यह लालित्य काव्य की जिस भावक भाषा में होती है उसमें रस भावकता का आधान गुण और अलंकार मण्डन से होता है । शान्त रस होने से माधुर्य गुण तो है ही, अलंकार की बात हम आगे करेंगे । अलंकारों में एक अलंकार है- 'निरुक्ति' जो व्युत्पत्ति मूलक चमत्कार का मुखापेक्षी है। यह अलंकार तो रचयिता की पहचान बन गया है। इस प्रकार आलोच्य कृति की भाषा शास्त्रभाषा नहीं है, वह अभिधात्मक नहीं है। कहीं क्वचित्, विशेषकर जब कोई पात्र मान्यताओं का वर्णन कर रहा हो, तो वहाँ की षा अभिधात्मक हो सकती है, पर कृति को उसकी अखण्डता में देखना चाहिए न कि काटकर एकदेश में। साहित्यदर्पणकार ने कहा है कि महाकाव्य की आस्वादधारा में नीरस प्रसंग भी सरस हो उठते हैं। शम की पुष्टि कहा जा सकता है कि जिस शान्त को संवेदना मानकर प्रस्तुत कृति को उसका रूपान्तर कहा जा रहा है, उसका स्थायी भाव 'शम' चेतन में ही सम्भव है । घट चेतन कहाँ है ? अत: शम की स्थिति न होने से शान्त की संवेदना अचेतन पात्र में कैसे रखी जा सकती है ? उत्तर में कहा जा सकता है कि घट अप्रस्तुत है। प्रस्तुत तो साधक जीवात्मा ही है, जो शान्त की स्थिति में पहुँचने के लिए शम या निर्वेद का अन्तस् में अवस्थान करता है । आरम्भ में ही वह माँ धरती
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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