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xxxviii :: मूकमाटी-मीमांसा
अक्षय सुख-सम्बन्ध में/विश्वास नहीं हो रहा हो/तो फिर अब अन्तिम कुछ कहता हूँ/कि,/ क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से मैं जहाँ पर हूँ/वहाँ आकर देखो मुझे,/तुम्हें होगी मेरी सही-सही पहचान/क्योंकि/ऊपर से नीचे देखने से/चक्कर आता है
और/नीचे से ऊपर का अनुमान/लगभग गलत निकलता है । इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर
मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !" (पृ. ४८७-४८८) रचयिता की साहित्य विषयक अवधारणा
गोस्वामी तुलसीदास, जो नाभादास के शब्दों में 'कलिकुलजीवनिस्तारहित वाल्मीकि के ही, आदि कवि के ही, अवतार हैं' की परम्परा में मुनि विद्यासागर की भी साहित्य स्वरूप विषयक अवधारणा को दृष्टिगत करें। उनका पक्ष है - साहित्य सहित का भाव है और 'सहित' में 'हित' निहित है : ।
"अर्थ यह हुआ कि/जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड ..!" (पृ. १११) रचयिता ‘स्वभाव-सुख' को सुख कहता है। वही जीवन्त और शाश्वत साहित्य में व्याप्त सुगन्ध है जिससे रहित होने पर सुकवि कृत भणिति 'विचित्र' होकर भी सारहीन शब्द-झुण्ड है ।
रचयिता जिस शान्त रस को रसराज मानता है, उसे शब्दबद्ध कर रहा है, पर शान्त' की पार्यन्तिक अनुभूति वाग्बद्ध नहीं हो सकती। उसकी संघर्षमय साधनावस्था ही शब्दबद्ध हो सकती है। 'दशरूपक' और उसके टीकाकार धनिक धनंजय कहते हैं :
“न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ न च काचिदिच्छा।
रसस्तु शान्त: कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु शमप्रधानः ॥"४/४६ ।। शान्त रस आत्मस्वरूपायत्ति है, अत: स्वरूपत: वह अनिर्वचनीय है, अत: उसके उपाय का ही वर्णन और आस्वाद हो सकता है। प्रस्तुत कृति शान्त रस की संवेदना का रूपान्तरण है
__ आलोच्य ग्रन्थ में शान्त रस स्वरूप स्वभाव-सुख' की मंज़िल तक पहुँचने के लिए संघर्षशील, तपोरत सम्भावनामयी माटी, जो घट का उपादान है, की ही तो आत्मकथा कही गई है। घट का उपादान माटी महासत्ता माँ धरती का ही अंश है । इसीलिए रचयिता स्थान-स्थान पर धरती के व्याज से उस महासत्ता का स्तवन करता है और गगन से भी अधिक उस माता धरती की महत्ता का ख्यापन करता है । यही विराट् मातृ सत्ता ही इस काव्य का वर्ण्य है। जिस प्रकार रामायण में राम, महाभारत में 'वासुदेव'और रामचरितमानस के आदि, मध्य तथा अवसान में 'राम' का ही यशोगान है, उसी प्रकार यहाँ भी मातृ सत्ता विराट् चेतना - विराट् सत्ता - व्यापक सत्ता ('धरती' से व्यंजित प्रस्तुत) का यशोगान है। इस प्रकार यह प्रतीक काव्य है, घटोपादान माटी उसी का अंश है । यह घट ईश्वरत्व पर्यवसायिनी सम्भावना वाले