________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 349
पृष्ठ संख्या २०, २२७, २४९, २७८, २९८, ३३७, ३५६, ३७९, ४२३, ४५५, ४६५ और ४७९ भी उत्प्रेक्षा की दृष्टि से द्रष्टव्य हैं। उल्लेख : "जय हो ! जय हो ! जय हो !/अनियत विहारवालों की
नियमित विचारवालों की/सन्तों की, गुणवन्तों की सौम्य-शान्त-छविवन्तों की/जय हो ! जय हो ! जय हो ! पक्षपात से दूरों की/यथाजात यतिशूरों की/दया-धर्म के मूलों की साम्य-भाव के पूरों की/जय हो ! जय हो ! जय हो! भव-सागर के कूलों की/शिव-आगर के चूलों की/सब कुछ सहते धीरों की
विधि-मल धोते नीरों की/जय हो ! जय हो ! जय हो !” (पृ.३१४-३१५) उल्लेख अलंकार का पृष्ठ संख्या ८, २२९, २३३, २६०, ३६६, ३७६ और ४४६ पर भी निर्वाह द्रष्टव्य है । काव्यलिंग :
___ “भयभीत होती अमावस्या भी इन से/दूर कहीं छुपी रहती वह;
यही कारण है कि/एक मास में एक ही बार
बाहर आती है आवास तजकर ।"(पृ.२२८) पृष्ठ संख्या १२७, १९२, २१५ और ३२१ भी काव्यलिंग के लिए द्रष्टव्य हैं। ___निदर्शना: "माटी के प्राणों में जा,/पानी ने वहाँ/नव-प्राण पाया है,
ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है।" (पृ. ८९) मानवीकरण: “मति की गति-सी तीव्र गति से/पवन पहुँचता है नभ-मण्डल में,
पापोन्मुखों में प्रमुख बादलों को/अपनी चपेट में लेता है, घेर लेता है
और/उनके मुख को फेर देता है/जड़ तत्त्व के स्रोत, सागर की ओर"। ...अब क्या पूछो!/बादल दल के साथ असंख्य ओले
सिर के बल जाकर/सागर में गिरते हैं एक साथ ।” (पृ. २६१-२६२) पृष्ठ संख्या २, ४, १९, ४६, २१७, २२८, २३९, २७८, ३४१ एवं ४७९ भी मानवीकरण के उदाहरण के लिए द्रष्टव्य
परिकरांकुर :
भ्रान्तिमान :
“आज तक किसी कारणवश/किसी जीवन पर भी पद नहीं रखा, कुचला नहीं"/अपद जो रहे हम !" (पृ. ४३३) "पहला बादल इतना काला है/कि जिसे देखकर अपने सहचर-साथी से बिछुड़ा/भ्रमित हो भटका भ्रमर-दल, सहचर की शंका से ही मानो/बार-बार इस से आ मिलता।” (पृ. २२७) "कम बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं।" (पृ. ९२) "किसी विध मन में/मत पाप रखो,/पर, खो उसे पल-भर/परखो पाप को भी
यमक :
० 0